पूँजीवादी लूट, शोषण, अन्याय के ख़िलाफ़ विशाल मज़दूर आंदोलन खड़ा करने के लिए आगे आओ! – मज़दूर दिवस सम्मेलन 

25प्यारे मज़दूर भाइयो और बहनो,

1 मई को अंतरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस (मई दिवस) आ रहा है। सारी दुनिया के मज़दूरों का साझा दिन, सबसे बड़ा त्यौहार! हमारे मज़दूर शहीदों को याद करने का दिन, इंसान के तौर पर बेहतर जीवन हासिल करने के लिए पूँजीवादी लूट-शोषण-अन्याय के विरुद्ध एकजुट संघर्षों के लिए नए संकल्प लेने का दिन! पूँजीपतियों के लिए मज़दूरों की एकता और गगनभेदी नारों से खौफ़जदा हो जाने का दिन और मज़दूरों, मेहनतकशों के लिए नया जोश, नई उम्मीदों का दिन!

मई दिन का जन्म काम के घंटे सीमित करने, आठ घंटे काम दिहाड़ी का क़ानून बनवाने के लिए मज़दूरों के महान जुझारू संघर्ष से हुआ और मज़दूरों की पूँजीवादी शोषण से मुक्ति के लिए महान संघर्ष का प्रतीक बन गया। इस दिन को हर देश, राष्ट्र, धर्म, जाति, नस्ल, और भाषा के मज़दूर बड़े उत्साह के साथ मनाते हैं। इस दिन दुनिया के अलग-अलग देशों के मज़दूर पहली मई के मज़दूर शहीदों को रैलियाँ, प्रदर्शन, सम्मेलन आदि आयोजित करके श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं, जिन्होंने मज़दूर वर्ग के अधिकारों और पूँजीपतियों की लूट-शोषण के खिलाफ अपनी जानें कुर्बान कीं। हम भी हर साल की तरह लुधियाणा में इस बार भी मज़दूर दिवस सम्मेलन का आयोजन करेंगे। आप सभी परिवारों समेत ज़्यादा से ज़्यादा संख्या में पहुँचें। अन्य मज़दूरों को भी ज़रूर लेकर आएँ।

मुक्ति संग्राम – अप्रैल 2024 में प्रकाशित

चुनावी बांड खुलासों से पूँजीवादी चुनावी खेल एक बार फिर हुआ बेपर्द! फिर से सामने आया पूँजीवादी लोकतंत्र का गंदा, घिनौना, भ्रष्ट चेहरा!: मेहनतकश जनता की बेहतरी का रास्ता पूँजीवादी चुनाव नहीं लूट-शोषण-अन्याय के विरुद्ध विशाल एकजुट संघर्ष है! – संपादकीय

Electoral Bond 2लोकसभा चुनावों की डुगडुगी बज चुकी है। तमाम तरह के पूँजीवादी वोट मदारी चुनावी खेल में बंदर-बंदरिया का नाच दिखाने पहुँच चुके हैं। कौन खेल ज़्यादा अच्छा खेलेगा, कौन जीतेगा, कौन हारेगा इसका फ़ैसला तो पूँजीपतियों ने ही करना है! आख़िर पूँजीपति वर्ग किसका साथ कितना देता है, किसे इस लुटेरे वर्ग की आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक ताक़त का साथ ज़्यादा प्राप्त होता है, ही तो इन चुनावों का फ़ैसला करने वाला है। हालात बता रहे हैं कि भाजपा और इसके सहयोगियों का यानी एन.डी.ए. गठबंधन का पलड़ा भारी है! चुनावी बांड संबंधी हुए खुलासे भी तो यही बता रहे हैं। लेकिन चुनावी बांडों ने सिर्फ़ भाजपा को ही नंगा नहीं किया बल्कि अन्य बहुत-सी पूँजीवादी चुनावी पार्टियों को भी जनता के सामने और ज़्यादा नंगा कर दिया है। इन खुलासों से पूँजीवादी पार्टियों और पूँजीपति वर्ग की रंगरलियाँ एक बार फिर खुलकर सामने आ गई हैं। इन खुलासों ने पूँजीवादी लोकतंत्र को, इसके चुनावी खेल के असल जनविरोधी चरित्र की सरेबाज़ार पोल खोलने का काम किया है।    

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पाठक मंच

1जहाँ स्त्रीपुरुष, धर्म, जाति का भेदभाव नहीं होता

मेरा नाम अंकिता है। मैं ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ती हूँ। मैं मौलीजागराँ (चंडीगढ़) की रहने वाली हूँ। मुझे नौजवान भारत सभा में शामिल हुए दो साल हो गए हैं। सभा में रहकर जो कुछ मैंने सीखा है, जो जाना है, उस बारे में मैं अपना अनुभव साझा कर रही हूँ।

नौजवान भारत सभा के कार्यकर्ताओं ने मौलीजागर में प्रचार किया था। मैंने उन्हें प्रचार करते देखा, तो मैंने सोचा कि वे सरकार की तरह शोर-गुल करके चले जाएँगे। लेकिन फिर मुझे पता चला कि सभा के कुछ कार्यकर्ता भी अपना समय निकालकर हमारे क्षेत्र में ‘नई सवेर पाठशाला’ की ओर से ट्यूशन पढ़ाते हैं, तो मेरी दिलचस्पी बढ़ गई।

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खाद्य पदार्थों की बढ़ती क़ीमतें और मेहनतकश जनता की बढ़ती बदहाली

2पिछले कुछ समय से भोजन की वस्तुओं की क़ीमतों में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। साल 2020 के बाद अकेले भारत में ही नहीं, विश्व स्तर पर महँगाई के बढ़ने के साथ खाद्य पदार्थों की क़ीमतों में तेज़ी आई है, जिससे मेहनतकश आबादी का जीवन स्तर तेज़ी से नीचे गिरा है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ ज़रूरी खाद्य पदार्थों की क़ीमतें पिछले 20 सालों के चरम पर हैं। चाहे अनाज हो, खाने वाला तेल, दूध या दूध से बनने वाले अन्य पदार्थ सब भारत की ग़रीब आबादी की पहुँच से दूर हो रहे हैं। 2023 की विश्व भूखमरी सूचकांक की रिपोर्ट के अनुसार भारत 125 देशों में से 111वें स्थान पर है। सारे संसार की कुल आबादी का 9.2 प्रतिशत कुपोषण का शिकार है, पर भारत की लगभग 16.60 प्रतिशत आबादी कुपोषित है, जो संख्या में लगभग 23 करोड़ 36 लाख 61 हज़ार बनती है।

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सकल घरेलू उत्पादन के नए आँकड़े और ज़मीनी हक़ीक़तें

Screenshot 2024-04-06 220918फ़रवरी महीने के अंत में भारत सरकार के राष्ट्रीय आँकड़ा दफ़्तर द्वारा भारत के ‘सकल घरेलू उत्पादन’ संबंधी नए आँकड़े जारी किए गए। इन आँकड़ों के मुताबिक़ अक्टूबर-दिसंबर तिमाही के दौरान सकल घरेलू उत्पादन 8.4% की दर से आगे बढ़ा है और पूरे 2023-24 वित्तीय वर्ष में इसके 7.6 प्रतिशत रहने का अनुमान है। भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर का कहना है कि ये आँकड़े  8 प्रतिशत तक भी पहुँच सकते हैं। 2024 के लोकसभा चुनाव में इन आँकड़ों को मोदी सरकार अपनी उपलब्धि के तौर पर प्रचारित कर रही है। लेकिन इन आँकड़ों के ऐसे अहम पक्ष भी हैं, जिन्हें गोदी मीडिया द्वारा नहीं दिखाया जा रहा। आज हम इन्हीं पहलुओं के बारे में बात करेंगे।

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गैस फ़ैक्टरी के निर्माण को रोकने के लिए जनता संघर्ष की राह पर

Gas Factoryगाँव भूंदड़ी और इलाक़े के अन्य गाँवों और क़स्बों की जनता के साथ बड़ा अन्याय करते हुए पंजाब सरकार ने जी.आई.ए.आई. एनर्जी प्रा.लि. नाम की कंपनी को लुधियाणा जि़ले के गाँव भूंदड़ी में सी.बी.जी./बायो सी.एन.जी. गैस फ़ैक्टरी लगाने की मंजूरी दी है। फ़ैक्टरी निर्माण का काम काफ़ी तेज़ी से हो रहा है, काफ़ी हिस्से का निर्माण हो चुका है। प्रदूषित गैस फ़ैक्टरी विरोधी संघर्ष कमेटी, भूंदड़ी के नेतृत्व में गाँव के लोग फ़ैक्टरी लगने का विरोध कर रहे हैं।

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आबादी: एक समस्या? – मनाली चक्रवर्ती (तीसरी किश्त)

2(आबादी को एक बड़ी समस्या के रूप में पेश किया जाता है। इसके बारे में मनाली चक्रवर्ती ने बहुत ही दिलचस्प लेख लिखा था, जोवैकल्पिक आर्थिक सर्वे, 2009-2010’ में छपा था।मुक्ति संग्राममें छापने के लिहाज से लेख थोड़ा लंबा होने के चलते हमने इसे किश्तों में प्रकाशित किया है। यह तीसरी और अंतिम किश्त है। पहली किश्त फ़रवरी 2024 और दूसरी किश्त मार्च 2024 अंक में छापी गई थी।संपादक)

अच्छा चलिए, अब यह पता लगाते हैं कि एक इज़्ज़तदार आरामदायक ज़िंदगी बसर करने के लिए कौन-कौन-सी बुनियादी ज़रूरतें हैं और उन्हें सबको मुहैया करवाने में कितना ख़र्च आएगा? मेरे हिसाब से आम सहमति इस पर बनेगी कि सभी को एक न्यूनतम स्तर तक की शिक्षा मिलनी चाहिए, पीने और अन्य दैनिक कार्य के लिए स्वच्छ पानी और साफ़-सुथरा परिवेश, सभी को पर्याप्त पोषण और स्वास्थ्य सुविधा और चूँकि प्रजाति को बनाए रखने और मानव जाति की सर्वांगीण प्रगति के लिए आने वाली पीढ़ी का स्वस्थ होना सर्वोत्तम महत्त्व रखता है, प्रजनन और मातृत्व सहायक चिकित्सा की सुविधा सबको अधिकार के रूप में मिलनी चाहिए। पर इसमें तो बहुत ख़र्च आएगा! ज़ाहिर है पूरी दुनिया की आबादी की बात हो रही है। यू.एन.पी.डी. ने 1998 की अपनी रिपोर्ट में इस ख़र्च का एक मोटा-मोटा अंदाज़ा लगाया है। उन्होंने तमाम शोध के ज़रिए इस बात का अनुमान लगाया है कि इन सुविधाओं पर वर्तमान में हो रहे ख़र्च से कितना अधिक ख़र्च करने पर सबको ये बुनियादी सुविधाएँ उपलब्ध करवाई जा सकती हैं।

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लुधियाणा में बड़ी गिनती में खुल रहे शराब के ठेके

3चुनाव के समय हर चुनावी राजनीतिक पार्टियाँ लोगों को लुभाने के लिए बहुत से वादे करती हैं। इन वादों में से एक वायदा नशा मुक्त पंजाब बनाने का होता है। पंजाब की आप सरकार ने भी दूसरे वादों के साथ यह वादा लोगों से किया था। लेकिन जीतने के बाद दूसरे वादों की तरह यह वादा भी झूठा ही निकला। 

पुराने समय में, जब भगवंत मान अभी राजनीति में नहीं आया था और अपनी बातों से लोगों का मनोरंजन करता था, उस समय नशों के ख़ि‍लाफ़ तरह-तरह के व्यंग्य किया करता था। उसने एक बार कहा था कि एक दिन पंजाब का हाल यह होगा कि हर गली और हर मोड़ पर शराब का ठेका होगा। लोग राहगीरों को ठेकों के हिसाब से पता बताया करेंगे। भगवंत मान का कहा आज उसकी अपनी सरकार में सच साबित हो गया है।

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पेरिस कम्यून : मज़दूरों का पहला राज्य

Paris commune 5153वीं वर्षगाँठ के अवसर पर

153 साल पहले, 18 मार्च 1871 को, अंतरराष्ट्रीय मज़दूर आंदोलन के तीन मील पत्थरों में से पहले – पेरिस कम्यून के नाम से जाने जाने वाले राज्य का जन्म हुआ था। दो और मील पत्थर हैं – अक्टूबर 1917 में रूस के मज़दूरों की महान समाजवादी क्रांति और 1966 में चीन की महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रांति। मज़दूरों का पहला राज्य भले ही 28 मई 1871 तक केवल 72 दिन ही वजूद में रह सका, पर इसने अपनी थोड़ी-सी उम्र में विश्व मज़दूर आंदोलन को नया जोश और रास्ता दिया। इसने क्रांति के विज्ञान के विकास में बेहद महत्वपूर्ण योगदान दिया। पेरिस कम्यून के लिए लड़े हज़ारों मज़दूरों का भले ही क़त्लेआम कर दिया गया, लेकिन वे शहीद होकर अमर हो गए। पेरिस कम्यून की कहानी अमर हो गई, जो 153 साल बाद भी लूट-शोषण से मुक्त समाज के निर्माण के लिए मज़दूरों को संगठित होने के लिए, अपनी सत्ता स्थापित करने के लिए प्रेरित करती है, राह दिखाती है।

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भारत में बेरोज़गारी की भयानक हालत: कुल बेरोज़गारों में 83 फ़ीसदी नौजवान

4‘अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन’ ने ‘मानव विकास संस्थान’ के सहयोग से ‘भारत रोज़गार रिपोर्ट-2024’ जारी की है। इस रिपोर्ट में बेरोज़गारी के संबंध में और ख़ासतौर पर नौजवानों में बेरोज़गारी के संबंध में जो तथ्य पेश किए हैं, वे एक बार फिर मोदी हुकूमत द्वारा 2 करोड़ रोज़गार हर साल पैदा करने के झूठे वायदों को नंगा कर रहे हैं।

भारत में बेरोज़गारी इस समय 45 सालों में सबसे अधिक है। इस ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक़, भारत के कुल बेरोज़गारों में 83 फ़ीसदी नौजवान हैं। हर साल भारत के श्रम बाज़ार में 70 से 80 लाख नौजवान शामिल होते हैं। अगर बेरोज़गारी दर की बात करें तो साल 2000 में नौजवानों में बेरोज़गारी दर 5.7% थी, जो साल 2022 में 12.1% हो गई। इसने साल 2019 में 17.5% के शिखर को भी छुआ। अगर पढ़े-लिखे नौजवानों की बात करें, तो 12वीं या इससे ऊपर की शिक्षा प्राप्त नौजवानों में बेरोज़गारी की दर सबसे अधिक है। साल 2000 में पढ़े-लिखे (12वीं से ऊपर) नौजवानों में बेरोज़गारी दर 35.7% थी, जो 2022 में बढ़कर 65.7% हो गई।

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23 मार्च के शहीदों की याद में अलग-अलग जगहों पर कार्यक्रम

23 march 2 BW23 मार्च के महान शहीदों – भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु की शहादत को याद करते हुए जनसंगठनों द्वारा मुहिम चलाई गई और कार्यक्रम आयोजित किए गए। शहीदों के विचारों की मौजूदा समय में ज़रूरत, आज के जनविरोधी पूँजीवादी निज़ाम के मुक़ाबले शहीदों के सपनों के लूट रहि‍त समाज का निर्माण करने की ज़रूरत को उभारा गया। वक्ताओं ने कहा कि भगतसिंह को आजकल रस्मी तौर पर हार चढ़ाकर खानापूर्ति कर दी जाती है। उसकी लड़ाई केवल अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ ना होकर कुल आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध थी, जो मेहनतकशों की लूट पर टिका हुआ है। आज़ादी के बाद भी मेहनतकशों के हाथ ग़रीबी, भुखमरी, अन्याय में जकड़े हुए हैं। मौजूदा हालात दिन-प्रतिदिन बद से बदतर होते जा रहे हैं। अमीरी-ग़रीबी का अंतर दिन-प्रतिदिन और बड़ा होता जा रहा है। लूट, दमन, अन्याय का बोझ बढ़ रहा है। सांप्रदायिक फ़ाशीवादी लहर का ख़तरा और बड़ा हो रहा है। ऐसे समय में भगतसिंह के विचार पहले से अधिक प्रासंगिक हो जाते हैं। आज के मज़दूरों, मेहनतकशों, नौजवानों, विद्यार्थियों को भगतसिंह और उसके अन्य साथियों द्वारा दिखाई राह पर चलकर समाज को बदलने में जुट जाना चाहिए।

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झूठी ख़बरें फैलाने के मामले में विश्व स्तर पर भारत पहले नंबर पर

Fake newsपिछले दिनों झूठी ख़बरों के सर्वेक्षण पर आधारित रिपोर्ट में झूठी ख़बरें फैलाने वाले विश्व के अग्रणी देशों की एक सूची जारी की गई। इस सूची में भारत पहले नंबर पर आया है। ग़ौरतलब है कि इन झूठी ख़बरों में बड़ा हिस्सा भाजपा आई.टी. सेल द्वारा योजनाबद्ध ढंग से फैलाई जाने वाली झूठी ख़बरों का है।

गुज़री 16 जनवरी को उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद जि़ले में गौ-हत्या का एक मामला सामने आया। पुलिस के पास बजरंग दल के जि़ला प्रधान ने रिपोर्ट दर्ज करवाई और दावा किया कि मुसलमानों ने ‘कांबड़ पथ’ (मुरादाबाद) में गौ-हत्या की है। भाजपा आई.टी. सेल द्वारा पूरे इलाक़े में मुसलमानों के ख़ि‍लाफ़ नफ़रत का माहौल बनाया गया। सोशल मीडिया के ज़रिए लोगों को ख़ूब भड़काया गया। लेकिन पुलिस जाँच में पता चला कि गौ-हत्या इन बजरंग दल वालों ने ही की थी। पकड़े गए तीन दोषी बजरंग दल से संबंधित थे। इनका मुख्य मक़सद लोकसभा चुनाव 2024 से पहले सांप्रदायिक माहौल भड़काना था। मुरादाबाद वाला मामला तो एक छोटी-सी ताज़ा मिसाल है।

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ऑटो उद्योग के मज़दूरों के हालात

auto_industryकुछ महीने पहले एक ‘क्रश्ड 2023’ नाम की रिपोर्ट आई, जिसमें ऑटोमोबाइल क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूरों की ज़िंदगी और उनके साथ होने वाली दुर्घटनाओं के बारे में जि़क्र किया गया। सड़कों पर लाल-पीली-नीली गाड़ियों और मोटर-साइकिलों को देखकर कभी भी उन्हें बनाने वाले मज़दूरों की ज़िंदगी के बारे में कोई नहीं सोच पता। महँगी गाड़ियाँ ख़रीदने वाले लोग शायद ही यह सोच पाते हों कि उस गाड़ी को बनाने वाले कितने ही मज़दूरों की उँगलियाँ कट जाती हैं और अंग नकारा हो जाते हैं।

भारत का ऑटोमोबाइल क्षेत्र इसके सबसे बड़े उद्योगों में शामिल है। इसी कारण से इस क्षेत्र को उद्योगों का उद्योग कहा जाता है। ऑटोमोबाइल क्षेत्र भारत के कुल घरेलू उत्पादन में 7.01% की हिस्सेदारी देता है और इस क्षेत्र के साथ लगभग 2 करोड़ मज़दूर जुड़े हुए हैं, जो संगठित और असंगठित रूप में काम कर रहे हैं। ऑटोमोबाइल क्षेत्र की मशहूर कंपनियों में होंडा, मारुति, हीरो, अशोक-लीलैंड, सुजुकी आदि शामिल हैं। भारत दुनिया में दो-पहिया और तीन-पहिया वाहन बनाने में दूसरे नंबर पर आता है और चौथे नंबर का सबसे ज़्यादा गाड़ियाँ-कारें बनाने वाला देश है। आइए ऑटोमोबाइल क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूरों के हालतों पर एक नज़र डालें।

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बेंगलुरु का पानी संकट – मुनाफ़े पर टिकी व्यवस्था का नतीजा

10बेंगलुरु, जिसे किसी समय झीलों का शहर कहा जाता था, आज पानी के भयानक संकट से जूझ रहा है। ना सिर्फ़ बेंगलुरु बल्कि पूरे कर्नाटक और इसके साथ लगते तेलंगाना और महाराष्ट्र के इलाक़ों में लोग पानी की किल्लत से जूझ रहे हैं। 18 मार्च को आए सरकारी बयान के मुताबिक़, केवल बेंगलुरु शहर इस समय 50 करोड़ लीटर प्रतिदिन पानी की कमी झेल रहा है। इस दौरान वॉटर टैंकरों की माँग लगातार बढ़ रही है, जिससे पानी के कारोबारी बेशुमार पैसा कमा रहे हैं। एक 12000 लीटर के टैंकर की क़ीमत 1200 से बढ़कर 2850 हो गई है। शहर के ही एक निवासी का कहना है, “हमारा छ: सदस्यों का परिवार है, बहुत सावधानी से इस्तेमाल करने पर भी एक टैंकर पाँच दिन ही निकालता है। जिसका मतलब है कि हमें एक महीने में छः टैंकर चाहिए। जिसका ख़र्चा दस हज़ार से भी बढ़ जाएगा, हम कितना समय इतने पैसे ख़र्च कर पाएँगे।” कहने की ज़रूरत नहीं कि शहर की ग़रीब बस्तियाँ इस संकट का सबसे ज़्यादा बोझ झेल रही हैं। उनका 75 प्रतिशत वेतन पानी जुटाने पर ख़र्च हो रहा है।

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जलियाँवाला बाग़ की ख़ून से भीगी मिट्टी की महक़ दिलों में बसाकर समाजवादी समाज के निर्माण की लड़ाई तेज़ करो!

Jallianwala Baag BWजलियाँवाला बाग़ क़त्लेआम की वर्षगाँठ (13 अप्रैल) के अवसर पर

आने वाली 13 अप्रैल को बैसाखी वाले दिन जलियाँवाला बाग़ क़त्लेआम की बरसी है। इस दिन जालिम उपनिवेशवादी अंग्रेज़ी हुकूमत द्वारा भारत की आज़ादी के आंदोलन को लूह के सागर में डुबाने की कोशिश की गई। इस क़त्लेआम का भारत की आज़ादी की लड़ाई में अहम स्थान है। इस घटना ने अंग्रेज़ी उपनिवेशवाद की दरिंदगी को उजागर करते हुए, उपनिवेशवादी हुकूमत से मुक्ति की लड़ाई तेज़ कर दी और आज एक सदी से भी ज़्यादा समय गुज़र जाने पर भी शोषण-उत्पीड़न के ख़ि‍लाफ़ चल रही लड़ाई में एक अहम स्थान रखती है। जलियाँवाला बाग़ क़त्लेआम के शहीदों की क़ुर्बानियाँ संघर्ष के लिए प्रेरणा और आत्म बलिदान की भावना का बड़ा स्रोत हैं।

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निजी अस्पतालों में ग़ैर-ज़रूरी सिजेरियन डिलीवरी का काला बाज़ार

Cesarian sectionलेबर वार्ड के बिस्तर पर पड़ी नीलम को डॉक्टर ने कहा है कि सब कुछ बढ़िया चल रहा है और आज रात 10 बजे तक तेरा बच्चा इस दुनिया में क़दम रखेगा। बीते नौ महीनों से गर्भ में अपने बच्चे को सँभाले हुई नीलम को अब इसी घड़ी का इंतज़ार है। पर थोड़े समय बाद डॉक्टर नीलम के पास आती है और कहती है – “तुम्हारे बच्चे की जान खतरे में है और समय बहुत कम है। ऑपरेशन करना पड़ेगा, नहीं तो बच्चा मर भी सकता है”। नीलम ऐसा कुछ सुनने के लिए तैयार नहीं थी। थोड़ी देर पहले नीलम का खिलखिलाता चेहरा अब भय की मूरत बन गया है। बीते महीनों में उसने डॉक्टर के कहे अनुसार अपनी देख-रेख में कोई कमी नहीं रखी थी, वह हक्की-बक्की हुई डॉक्टर की इस बात का कारण नहीं समझ पा रही थी।

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अंबानी पूँजीपति घराने द्वारा दौलत का भद्दा प्रदर्शन बनाम मेहनतकश जनता के बदतर हालात

5पिछले दिनों भारत के सबसे अमीर आदमी मुकेश अंबानी के बेटे अनंत अंबानी की शादी के पहले के जश्नों की काफ़ी चर्चा रही। अय्याशी के इस भद्दे समारोह में बड़े फि़ल्मी कलाकारों, खिलाड़ियों से लेकर अन्य देशों से बड़े अमीरों ने शिरकत की। सिर्फ़ तीन दिन के इस आयोजन में 1259 करोड़ से अधिक की रक़म ख़र्च की गई। अभी तो यह ‘प्री-वेडिंग’ जश्न था, शादी तो अभी जुलाई में होनी है!

बेशर्म हुक्मरान मीडिया के पत्रकार पालतू कुत्तों की तरह इस आयोजन के दृश्य दिखाने के लिए दौड़ रहे थे। कुछ तो इस प्रोग्राम को “भारत की बढ़ती ताक़त” के रूप में प्रचारित कर रहे थे। मुकेश अंबानी की पत्नी की करोड़ों की साड़ी, बॉलीवुड और विदेशी कलाकारों के बेशर्म नाच मीडिया की ख़बरों में छाए रहे। भारत में एक तरफ़ तो दौलत के अंबार लगे हैं, अय्याशी के सारे रिकाॅर्ड टूट रहे हैं, मज़दूरों की मेहनत निचोड़-निचोड़कर पल रहे ये परजीवी, अय्याश लोग मज़े लूट रहे हैं। दूसरी तरफ़ इसी देश में करोड़ों लोग दो वक़्त की रोटी और पीने के साफ़ पानी के लिए भी संघर्ष कर रहे हैं।

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मोदी सरकार के सांप्रदायिक-फ़ाशीवादी हमले का मुँहतोड़ जवाब देने के लिए आगे आओ! : नागरिकता संशोधन क़ानून (सी.ए.ए.), राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एन.आर.सी.) और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एन.पी.आर.) रद्द कराने के लिए विशाल जन आंदोलन खड़ा करो! • संपादकीय

CAAमोदी सरकार ने 11 मार्च 2024 से ‘नागरिकता संशोधन क़ानून’ (सी.ए.ए.) लागू करने का नोटिफ़ि‍केशन जारी कर दिया है। कोरोना लॉकडाउन से पहले भारत की सत्ता पर काबिज़ संघ-भाजपा अपने राजनीतिक एजेंडे ‘हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान’ के तहत धार्मिक अल्पसंख्यकों, ख़ासकर मुसलमानों को नागरिक अधिकारों से वंचित करने के लिए नागरिकता संशोधन क़ानून लेकर आई थी। इस क़ानून के ख़िलाफ़ पूरे देश में जन आंदोलन हुआ। देश के हुक्मरानों ने पूरा ज़ोर लगाया कि इस आंदोलन में हिंदू बनाम मुसलमान का पत्ता खेला जाए। लेकिन अलग-अलग धर्मों के लोगों ने आपसी एकता की नई मिसालें पेश करते हुए हुक्मरानों के फ़िरक़ापरस्त मंसूबों को कामयाब नहीं होने दिया। फिर कोरोना भारत के हुक्मरानों के लिए एक अवसर बनकर आया और वे इस आंदोलन को बिखेरने में काययाब हो गए। नागरिकता क़ानून को लागू करने के बारे में भी हुक्मरानों ने उस समय चुप्पी धारण कर ली थी।

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पाठक मंच

Screenshot 2024-03-15 161838पत्रिका के मिलने का इंतज़ार रहता है

आदरणीय संपादक महोदय, मुक्ति संग्राम,

पत्रिका के बारे में हमारे साथी द्वारका प्रसाद पूर्व प्रो. जेएनयू से जानकारी मिली। उसके बाद करीब एक साल पहले पत्रिका का सदस्य बना। पत्रिका नियमित मिल जाती है। पत्रिका में छपी सामग्री बहुत ही सरल भाषा में वैज्ञानिक विचारधारा के आधार पर सारगर्भित विश्लेषण करते हुए छापी जा रही है। पत्रिका में शोषण, दमन, उत्पीड़न के विरुद्ध प्रगतिशील विचारों का समावेश किया जा रहा है। पत्रिका के सभी लेख वर्गीय दृष्टिकोण के साथ तथ्यों और विज्ञान की कसौटी पर तर्कों के साथ रखे गए हैं। पत्रिका के लेखों को पढ़ने से वर्गीय दृष्टिकोण से घटनाओं को समझने और विश्लेषण करने में सहायता मिलती है। इसलिए पत्रिका के मिलने का इंतज़ार रहता है। पत्रिका के लिए वार्षिक सहयोग राशि भेज दी है, आशा है पत्रिका समय पर मिलती रहेगी। आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।

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सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज – भगतसिंह

BhagatSingh_b copyशहादत दिवस 23 मार्च पर विशेष

जन्म – 28 सितंबर 1907
शहादत – 23 मार्च 1931

भारतवर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है। एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों के जानी दुश्मन हैं। अब तो एक धर्म का होना ही दूसरे धर्म का कट्टर शत्रु होना है। यदि इस बात का अभी यक़ीन ना हो तो लाहौर के ताज़ा दंगे ही देख लें। किस प्रकार मुसलमानों ने निर्दोष सिखों, हिंदुओं को मारा है और किस प्रकार सिखों ने भी वश चलते कोई कसर नहीं छोड़ी है। यह मार-काट इसलिए नहीं की गई कि फलाँ आदमी दोषी है, बल्कि इसलिए कि फलाँ आदमी हिंदू है या सिख है या मुसलमान है। बस किसी व्यक्ति का सिख या हिंदू होना मुसलमानों द्वारा मारे जाने के लिए काफ़ी था और इसी तरह किसी व्यक्ति का मुसलमान होना ही उसकी जान लेने के लिए पर्याप्त तर्क था। जब स्थिति ऐसी हो तो हिंदुस्तान का ईश्वर ही मालिक है। 

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लाखों जर्मन मज़दूर संघर्ष की राह पर

10जर्मनी में इस समय लाखों मज़दूर अपनी जायज़ माँगों को लेकर हड़तालें कर रहे हैं, जो जर्मन हुक्मरानों के लिए बड़ी चुनौती बनी हुई है। इन हड़तालों में मुख्य तौर पर रेलवे ड्राइवर और अन्य ट्रांसपोर्ट मज़दूर शामिल हैं। मज़दूर काम के घंटे कम करने से लेकर, वेतन बढ़ाने, सामाजिक सुरक्षा के दायरे को बड़ा करने और काम की परिस्थितियों को बेहतर बनाने की माँग कर रहे हैं। उल्लेखनीय है कि पिछले दो सालों से, ख़ासकर रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद जर्मनी में ऊर्जा की क़ीमतें तेज़ी से बढ़ी हैं। इससे औद्योगिक लागत बढ़ी है लेकिन इसका बोझ जर्मन मेहनतकश जनता पर डाल दिया गया। जर्मन अर्थव्यवस्था साल 2023 में 0.3% तक सिकुड़ गई और जर्मन केंद्रीय बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक़ साल 2024 की पहली तिमाही में भी अर्थव्यवस्था में मंदी का दौर जारी रहेगा। जर्मनी में महँगाई बढ़ने के कारण, मज़दूरों के वेतन में वृद्धि के बावजूद उनके असल वेतन पहले के मुक़ाबले और कम हो गए हैं। इस कारण जर्मनी में जहाँ पिछले काफ़ी समय से पश्चिमी यूरोप के अन्य देशों के मुक़ाबले हड़तालों की संख्या काफ़ी कम थी, वहाँ भी अब मज़दूर वर्ग ने अँगड़ाई लेनी शुरू कर दी है। जर्मनी में राजनीतिक हड़तालों पर पाबंदी है और केवल ट्रेड यूनियनें ही हड़ताल का आह्वान कर सकती हैं। अब जर्मन पूँजीवादी हुक्मरानों को मज़दूरों के ये बचे-खुचे अधिकार भी चुभने लगे हैं और वे हड़ताल को क़ाबू करने के लिए और भी सख़्त क़ानून बनाने की माँग कर रहे हैं। सख़्त क़ानूनों की इन धमकियों के बावजूद भी मज़दूर अपनी माँगों पर डटे हुए हैं।

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पीस रेट पर काम करने वाले मज़दूरों का भयानक शोषण

screenshot-2024-02-19-023550आज की दुनिया मज़दूरों के श्रम से ही चलती है, लेकिन मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था में मज़दूर ही सबसे ज़्यादा लूट का शिकार हैं। पूँजीपतियों द्वारा श्रम का शोषण केवल कारख़ानों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि ‘आउटसोर्स’ काम के ज़रिए पूँजीपति अपने घरों पर ही रहकर कारख़ानों के लिए काम करने वाले मज़दूरों का भी शोषण करते हैं। आज मैं आपके साथ एक ऐसा ही अनुभव साझा करना चाहता हूँ।

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कोरोना लॉकडाउन के बाद तेज़ी से निजीकरण की ओर बढ़ती भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था

22भारत में सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था दिन-ब-दिन बदतर होती जा रही है। दूसरी ओर स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में निजी कंपनियों की दख़लअंदाज़ी लगातार बढ़ती जा रही है। कोरोना घटनाक्रम के बाद निजी कंपनियों द्वारा स्वास्थ्य क्षेत्र में पूँजी का निवेश काफ़ी तेज़ी से हुआ है। वैसे तो यह पूँजीवादी व्यवस्था के वजूद से जुड़ा लक्षण है कि प्राकृतिक शक्तियों की बड़ी तबाही में यह अपने संकटों का आरज़ी हल ढूँढ़ती है। यही कारण है कि बड़े विश्व युद्धों या महामारियों के बाद इस व्यवस्था में ऐसी तेज़ी के दौर आते रहे हैं। इस बार भी कोरोना के बहाने सरकार द्वारा देश में किए गए लॉकडाउन और इसके नतीजे कुछ पूँजीपतियों के लिए लाभकारी साबित हुए।

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भारत पर बढ़ता क़र्ज़

5दिसंबर 2023 में एक रिपोर्ट प्रकाशित की गई, जिसमें यह सामने आया कि भारत के सिर पर क़र्ज़ ख़तरे के निशान पर पहुँच चुका है। इस समय भारत पर कुल क़र्ज़ सकल घरेलू उत्पादन का 100 प्रतिशत होने वाला है। इसमें से 155 करोड़ का क़र्ज़ यूनियन सरकार ने और सकल घरेलू उत्पादन का 28 प्रतिशत क़र्ज़ राज्य सरकारों ने लिया हुआ है । आइए विस्तार से क़र्ज़ के बारे में, इसके बढ़ने के कारणों और आम लोगों पर इसके असर के बारे में बात करते हैं।

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अंतरराष्ट्रीय मज़दूर स्त्री दिवस पर विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन

Stree diwas- 1बीती 8 मार्च को अंतरराष्ट्रीय मज़दूर स्त्री दिवस था। यह दिन हक़, आज़ादी, बराबरी के लिए, लूट-दमन-अन्याय के विरुद्ध स्त्री मज़दूरों के लगातार जारी संघर्षों का प्रतीक दिन है। इस दिन के संबंध में विभिन्न मज़दूर-नौजवान-छात्र संगठनों ने अलग-अलग जगहों पर कार्यक्रम आयोजित किए।

कारख़ाना मज़दूर यूनियन, पंजाब द्वारा लुधियाणा की राजीव गाँधी कालोनी में 10 मार्च को झंडा मार्च किया गया। यूनियन की सचिव कल्पना ने लोगों को संबोधित करते हुए मज़दूर महिलाओं की विशेष माँगों – बराबर काम का बराबर वेतन, काम की जगहों पर सुरक्षा की गारंटी आदि पर बात की। उन्होंने कहा कि आज महिलाओं को दूसरे दर्जे की नागरिक समझने वाले समाज में मेहनतकश महिलाओं को अपने हक़-अधिकारों को जानना-समझना होगा और समाज को बदलने के लिए आगे आना होगा। आज महिलाओं के जागरुक हुए बिना, उनके संघर्षों में हिस्सा लिए बिना कोई भी सामाजिक बदलाव पूरा नही होगा। साथी रमेश ने गीत पेश किए।

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धारा 295-ए के ख़िलाफ़ रोष कन्वेंशन और प्रदर्शन

295-aबीती 27 फ़रवरी को जलंधर के देशभगत यादगार हाल में पंजाब के 45 संगठनों के मंच ‘धारा 295-ए और अन्य काले क़ानूनों विरोधी कमेटी’ के आह्वान पर रोष कन्वेंशन और प्रदर्शन किया गया। वक्ताओं ने कहा कि पंजाब सरकार और पुलिस की यह सारी कार्रवाई पूरी तरह ग़ैरजनवादी है, विचार ज़ाहिर करने की आज़ादी पर हमला है, जनवादपसंद नेताओं, कार्यकर्ताओं, लेखकों, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों और अन्य आम नागरिकों की जनवादी अधिकार की आवाज़ दबाने वाली, सांप्रदायिक ताक़तों की पीठ थपथपाने वाली है। समाज में वैज्ञानिक, जनवादी और सांप्रदायिकतावाद विरोधी विचारों का प्रचार करना हरेक नागरिक का फ़र्ज़ है और संवैधानिक अधिकार भी है। हिंदुत्वी फ़ाशीवादी ताक़तों द्वारा अपने घटिया सांप्रदायिक फ़ाशीवादी राजनीतिक मंसूबों के तहत धारा 295 और 295-ए का इस्तेमाल करके समाज को जागरुक करने वाले लोगों के ख़िलाफ़ झूठे केस दर्ज करवाए जा रहे हैं। ये ताक़तें अयोध्या में राम मंदिर के बहाने योजनाबद्ध साज़िश के तहत देश समेत पंजाब में लगातार सांप्रदायिकतावादी नफ़रत का माहौल पैदा करने की कोशिश कर रही हैं, जिसे बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। उन्होंने सभी इंसाफ़पसंद और जनवादपसंद लोगों को सांप्रदायिकतावादी ताक़तों की जनविरोधी साज़िशों का मुँहतोड़ जवाब देने के लिए आगे आने का आह्वान किया है।

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पूँजीपति वर्ग सर्वोपरि अपनी क़ब्र खोदने वालों को पैदा करता है!

Marx-1.BW(विश्व मज़दूर वर्ग के महान शिक्षक और नेताओंकार्ल मार्क्स और फ़्रेडरिक एंगेल्स द्वारा मज़दूरों के अंतरराष्ट्रीय संगठन कम्युनिस्ट लीग के लिए साल 1848 मेंकम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्रलिखा गया था। यहाँ हम कार्ल मार्क्स की 141वीं बरसी (14 मार्च 2024) के अवसर पर इस ऐतिहासिक दस्तावेज़ के अंश पेश कर रहे हैं।संपादक)

जिन हथियारों से पूँजीपति वर्ग ने सामंतवाद को मार गिराया था, वे ही अब पूँजीपति वर्ग के ख़ि‍लाफ़ मोड़ दिए जाते हैं।

किंतु पूँजीपति वर्ग ने ऐसे हथियारों को ही नहीं गढ़ा है जो उसका अंत कर देंगे, बल्कि उसने ऐसे लोगों को भी पैदा किया है जो इन हथियारों का इस्तेमाल करेंगे – आधुनिक मज़दूर वर्ग – सर्वहारा वर्ग।

जिस अनुपात में पूँजीपति वर्ग का, यानी पूँजी का विकास होता है, उसी अनुपात में सर्वहारा वर्ग का, आधुनिक मज़दूर वर्ग का, उन श्रमजीवियों के वर्ग का विकास होता है, जो तभी तक ज़िंदा रह सके हैं जब तक उन्हें काम मिलता जाए, और उन्हें काम तभी तक मिलता है, जब तक उनका श्रम पूँजी में वृद्धि करता है। ये श्रमजीवी, जो अपने को अलग-अलग बेचने के लिए लाचार हैं, अन्य व्यापारिक माल की तरह ख़ुद भी माल हैं, और इसलिए वे होड़ के उतार-चढ़ाव तथा बाज़ार की हर तेज़ी-मंदी के शिकार होते हैं।

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एरिक हेनींग्सेन का चित्र ‘एक घायल मज़दूर’

PAINTINGमिलों-कारख़ानों-खदानों में श्रमिकों का दुर्घटनाग्रस्त हो जाना कोई नई बात नहीं है। मानव सभ्यता के विकास की निरंतरता के बीच, रह-रहकर अनेक जोखिम भरे कामों को करते हुए जाने कितने ही अनाम श्रमिकों ने अपने प्राणों की आहुति दी है, लेकिन उनकी ऐसी बलिदान कथाओं के बारे में सोचने, विचार करने और उनके बारे में कुछ करने के उदाहरण कम नज़र आते हैं। भारत में 1975 में घटित चासनाला कोयला खदान दुर्घटना में 375 खदान मज़दूरों की मृत्यु हो गई थी, लेकिन आज हम इस दुर्घटना को भूल गए हैं। आज भी हमारे मिलों-कारख़ानों में ज़रूरी सुरक्षा बंदोबस्त के अभाव में आए दिन दुर्घटनाएँ होती रहती हैं। अभी कुछ दिनों पहले उत्तराखंड में एक निर्माणाधीन सुरंग में घटी दुर्घटना के कारण वहाँ फँसे 41 मज़दूर काफ़ी दिनों तक ख़बरों की सुर्खियों में बने रहे। जैसी कि हमारी परंपरा रही है, बहुत जल्द हम इस दुर्घटना को भी भूल जाएँगे। विश्व कला और साहित्य के इतिहास में हमें ऐसी दुर्घटनाओं पर आधारित अनेक उत्कृष्ट कृतियाँ मिलती हैं, जो हमें बार-बार ऐसी दुर्घटनाओं, श्रमिकों के शोषण और उनके प्रति हमारी उदासीनता को व्यक्त करने की कोशिश करती हैं। भारतीय भाषाओं में, खदान दुर्घटना पर आधारित और उत्पल दत्त द्वारा प्रस्तुत बांगला नाटक ‘अंगार’ (1959) निस्संदेह एक ऐसी ही विरल कृति है। ऐसी विभिन्न दुर्घटनाओं पर भारतीय भाषाओं में कई फ़िल्में भी बनी हैं। आधुनिक भारतीय चित्रकला में कुछ जनपक्षधर चित्रकारों ने ऐसे विषयों पर चित्र अवश्य बनाए हैं, लेकिन उन चित्रों की ओर कला इतिहासकारों और समीक्षकों का कभी ध्यान नहीं गया।

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हल्द्वानी हिंसा के लिए संघ-भाजपा की फ़ाशीवादी राजनीति ज़िम्मेदार

78 फ़रवरी 2024 को उत्तराखंड के नैनीताल जि़ले के हल्द्वानी शहर के बनभूलपुरा इलाक़े में एक मदरसे और एक मस्जि‍द को गिराने के मामले को लेकर पुलिस और मुस्लिम समुदाय में ज़बरदस्त हिंसा हुई। इस हिंसा में 6 लोगों की मौत हुई और 100 के क़रीब लोग बुरी तरह ज़ख़्मी हुए। भाजपा सरकार की बुलडोजर राजनीति में हल्द्वानी की हिंसा इसकी फ़ाशीवादी नीतियों की एक अगली कड़ी है।

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नई सवेर पाठशाला के अनुभव

Nai saverपाठक दोस्तो! ‘नई सवेर पाठशाला’ में बच्चों को पढ़ाने का अनुभव मैं ‘मुक्ति संग्राम’ अख़बार के ज़रिए आपसे साझा कर रहा हूँ। मुझे नई सवेर पाठशाला मौली जागराँ (चंडीगढ़) से जुड़े एक साल से ज़्यादा समय हो गया है। शुरू-शुरू में मैं सोचता था कि मैं बच्चों को कैसे सँभालूँ और बढ़िया तरीक़े से कैसे पढ़ाऊँ। लेकिन जैसे हर काम के मामले में होता है कि शुरू में काम करना मुश्किल होता है, लेकिन जब आप काम करते जाते हैं तो बहुत सारे डर और चिंताएँ आसानी से ही ख़त्म हो जाती हैं। मैंने एक साल के दौरान बच्चों को काफ़ी कुछ सिखाया और बहुत कुछ बच्चों से ख़ुद भी सीखा।

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पाकिस्तान में चुनाव – बदतर हो रहे जनता के हालात के बीच लोकतंत्र की नौटंकी

जनता की बढ़ती आर्थिक मुश्किलों के बीच 8 फ़रवरी को पाकिस्तान में राष्ट्रीय असेंबली के चुनाव हुए। जनता का पूरे सरकारी तंत्र से हुआ मोहभंग वोट प्रतिशत में भी दिखा और केवल 47.6% लोग ही वोट देने पहुँचे। बड़े स्तर पर चुनावी धाँधली और फ़ौजी दख़लअंदाज़ी के दोषों के बीच किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। जनता द्वारा सभी को नकारने के फ़ैसले के बावजूद जोड़-तोड़ के ज़रिए सरकार बनाने की ज़ोर-अज़माइश की गई। पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज़) के नेतृत्व में 6 पार्टियों का मौक़ापरस्त गठजोड़ बन गया। इस गठजोड़ के तहत मुस्लिम लीग का शाहबाज़ शरीफ़ प्रधानमंत्री की कुर्सी पर और पी.पी.पी. का आसिफ़ जरदारी राष्ट्रपति की कुर्सी पर बैठ गया है।

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आबादी: एक समस्या? (दूसरी किश्त)

2(आबादी को एक बड़ी समस्या के रूप में पेश किया जाता है। इसके बारे में मनाली चक्रवर्ती ने बहुत ही दिलचस्प लेख लिखा था
जोवैकल्पिक आर्थिक सर्वे, 2009-2010’ में छपा था।मुक्ति संग्राममें छापने के लिहाज से लेख थोड़ा लंबा होने के चलते हम इसे तीन किश्तों में प्रकाशित कर रहे हैं।
यह दूसरी किश्त है। पहली किश्त फ़रवरी 2024 अंक में छपी थी।)

अब यह जानने की कोशिश करते हैं कि आख़िर ग़रीब परिवारों में ही ज़्यादा बच्चे क्यों होते हैं? सुनने में आया है कि हमारे मौजूदा स्वास्थ्य मंत्री का मानना है कि बच्चे जनना या उसकी बुनियादी प्रक्रिया में शामिल होना ग़रीब जनता के लिए मनोरंजन का एक सस्ता और उत्तेजक साधन है। एक संवेदनशील प्रगतिवादी नेता होने के कारण उन्होंने इस पर क़ाबू पाने का एक अभिनव तरीक़ा ढूँढ़ लिया है – गाँव-गाँव में बिजली। लोग देर रात तक टीवी का आनंद उठाएँगे और फिर चैन की नींद सो जाएँगे, तो मसला जड़ से सुलझ जाएगा। वाह री कल्पना-शक्ति की उड़ान! बिजली के बड़े सारे उपयोग सुने हैं, पर यह तो लीक से मीलों हटकर है। माननीय स्वास्थ्य मंत्री पुरुष हैं, सौभाग्यवश वह कभी माँ नहीं बन सकते, इसलिए बच्चा पैदा करने का सबसे आसान विकल्प उनके लिए मनोरंजन हो सकता है। पर जिस माँ ने एक भी बच्चा अपने गर्भ में धारण किया है, नौ महीने तक तिल-तिल कर उसका पोषण किया है, प्रसव पीड़ा सही है और फिर अपने ख़ून को दुग्ध सुधा के रूप में बच्चे के नन्हे भूखे हलक में उतारा है, वह उसे महज़ मनोरंजन नहीं मान सकती। और मैं तो उन माँओं की बात कर रही हूँ, जो अक्सर अपना पहला बच्चा सोलह-सत्रह साल की कच्ची उम्र में जनती हैं और फिर जनती चली जाती हैं, साल-दर-साल। कुपोषित देह, ख़ून की भीषण कमी, यह तो हमारे-जैसे देश में माँओं के लिए आम बात है। गर्भ में शिशु पलने के बावजूद जहाँ पर वह माँ सबसे आख़िर में परिवार का बचा-खुचा निगलती है और उस बेस्वाद निवाले से भी सारी पौष्टिकता उसके गर्भ में पलनेवाला कुल का चिराग अपने हिस्से कर लेता है। जन्म के बाद भी वह बच्चा अपनी माँ की सूखी छातियों को चूसकर मानो उसकी रही-सही जीवन-शक्ति ही निचोड़ लेता है। मातृत्व का वह काव्यात्मक रूप, जिसे हमने कविताओं, कहानियों और चित्रों में जाना है, इस प्रक्रिया में कहीं नज़र नहीं आता। बल्कि गहराई में जाने पर यह समझ बनती है कि साल-दर-साल बच्चे जनना तो एक गंभीर राजनीतिक मसला है – वह है हमारे समाज में स्त्री-पुरुष के अधिकारों में मौलिक असमानता।

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मोदी सरकार के दस सालों की आर्थिक नीतियों का कच्चा चिट्ठा: भाजपा-आर.एस.एस. के मज़दूर-मेहनतकश विरोधी चरित्र को पहचानो! देशी-विदेशी पूँजीपतियों के दलालों को जनता में नंगा करो!

2जल्द ही देश में लोकसभा चुनाव होने जा रहे हैं। इस तरह भाजपा के नेतृत्व वाले एन.डी.ए. गठबंधन की मोदी सरकार का दूसरा कार्यकाल भी ख़त्म होने जा रहा है। भाजपा-एन.डी.ए. फिर से सरकार बनाने के लिए हर हथकंडा आजमा रहे हैं। जनता से झूठे वादे किए जा रहे हैं। मोदी के नाम पर गारंटियाँ बाँटी जा रही हैं। पूँजीपतियों, ख़ासकर अंबानी-अदाणी जैसे एकाधिकारी पूँजीपतियों की पिछले 10 साल में भाजपा ने ख़ूब सेवा की है। इनसे भाजपा को ख़ूब और अन्य सभी पूँजीवादी पार्टियों से कहीं ज़्यादा चुनावी चंदा मिल रहा है। जिसे यह अपने पक्ष में चुनावी माहौल बनाने के लिए पूरी कुशलता से इस्तेमाल कर रही है।

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मुसलमानों के विरुद्ध नफ़रत फैलाने का सांप्रदायिक धंधा

50मोदी सरकार के सत्ता में 10 साल पूरे होने जा रहे हैं। इस समय ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ द्वारा अपनी सांप्रदायिक राजनीति को बड़े स्तर पर मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल किया जा रहा है। हिंदुस्तान में एक डर का माहौल बनाया जा चुका है। इस्लाम का डर दिखाकर लगातार ध्रुवीकरण किया जा रहा है। हिंदुस्तान की जनता की हर समस्या का कारण इस्लाम और मुसलमानों में ढूँढ़ा जा रहा है। नक़ली दुश्मन खड़ा करके, जनता में इस्लाम की दहशत पैदा करके एक प्रकार का इस्लामोफ़ोबिया फैला दिया गया है।

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सरकारी रोज़गार का दिनों-दिन हो रहा ख़ात्मा!

9आज के पूँजीवादी समाज में जब अमीरी-ग़रीबी की खाई लगातार बढ़ रही है, तो आम लोगों की ज़िंदगियों के हालात भी बिगड़ते जा रहे हैं। हर आम परिवार का बच्चा इन बिगड़ते हालातों को दूर करने के लिए बहुत-से सपने देखता है, जिनमें से एक है पढ़-लिखकर सरकारी नौकरी पाने का सपना, जिससे कि वह अपनी और अपने परिवार की ज़िंदगी आसान बना सके। लेकिन सरकार द्वारा लगातार ख़त्म किए जा रहे स्थाई रोज़गार अनेकों नौजवानों के इस सपने को चकनाचूर कर रहे है।

कहने को तो हम ऐसे आज़ाद देश के निवासी हैं, जहाँ लोगों द्वारा सरकार बनती है, जो हर बार अपने देशवासियों को अच्छी और ज़रूरी शिक्षा और स्थाई रोज़गार को सुनिश्चित करती है। भारतीय लोकतंत्र के क़ानून के अनुसार अच्छी शिक्षा और स्थाई रोज़गार यहाँ बसे हर नागरिक का बुनियादी अधिकार है। लेकिन सच्चाई यह है कि यह अधिकार सिर्फ़ क़ानून के ग्रंथों तक ही सीमित रह गए हैं, क्योंकि यहाँ बनने वाली सरकारें लोगों के लिए नहीं, बल्कि पूँजीपति जोंकों के लिए काम करती हैं और लोगों को मिलने वाली सुविधाओं में कटौती करके धन्नासेठों की जेबें भरने और उनके मुनाफ़े बढ़ाने के लिए नीतियाँ बनाना यहाँ की सरकारों का मुख्य काम है। इन्ही नीतियों के तहत ही आज सरकारी संस्थाओं का निजीकरण बड़े ज़ोरों-शोरों से चल रहा है।

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अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के बहाने सांप्रदायिक राजनीति हुक्मरानों की ‘फूट डालो और राज करो’ की साज़िशों को पहचानो! मेहनतकश जनता के बुनियादी माँग-मसलों के लिए एकजुट हो जाओ! • संपादकीय

बीती 22 जनवरी को भाजपा-आर.एस.एस. द्वारा अयोध्या में राम मंदिर का उद्घाटन किया गया। भले ही इस आयोजन को एक धार्मिक आयोजन के रूप में प्रचारित किया गया था और आम हिंदू आबादी के बड़े हिस्से ने इस दिन धार्मिक श्रद्धा के रूप में जश्न भी मनाया, लेकिन असल में इस उद्घाटन की तैयारियों से लेकर राम मूर्ति स्थापित करने की रस्में निभाने तक की सभी गतिविधियों में मोदी का चेहरा हिंदुओं के रक्षक और नायक के तौर पर पेश किया गया। संघ परिवार का उद्देश्य इस आयोजन के माध्यम से राम मंदिर को ‘हिंदू राष्ट्र’ के प्रतीक के रूप में स्थापित करना था और इसमें वे काफ़ी हद तक सफल भी रहा।

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भारत की तीन चौथाई आबादी अच्छी ख़ुराक से भी वंचित

malnutritionसंयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, साल 2021 के दौरान भारत की 74.1% आबादी यानी 100 करोड़ से ज़्यादा लोगों को अच्छे स्वास्थ्य के लिए पर्याप्त भोजन भी नसीब नहीं होता। यानी हर चार में से तीन लोगों को पर्याप्त खाना नहीं मिल पाता। और इसमें से भी 16.6 प्रतिशत, लगभग 20 करोड़ लोग तो कुपोषण के शिकार हैं। इस रिपोर्ट में तुलनात्मक अध्ययन से यह पता चला कि इस मामले में भारत की स्थिति उसके पड़ोसी देश बांग्लादेश और ईरान से भी बदतर रही।

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चंडीगढ़: जनता के दबाव के कारण आठ वर्षीय बच्ची का क़ातिल गिरफ़्तार

chandigarh bachchiगुज़री 19 जनवरी को चंडीगढ़ की मज़दूर बस्ती हल्लोमाजरा में 8 साल की मासूम बच्ची के क़त्ल की घिनौनी घटना घटी। इस घटना के बाद इलाक़े की जनता में ज़बरदस्त रोष फैल गया। जनता के रोष और संगठित दबाव के चलते पुलिस को क़ातिल को पकड़ने की प्रक्रिया तेज़ करनी पड़ी और दोषी को चार दिनों के अंदर बिहार से गिरफ़्तार करके चंडीगढ़ लाया गया।

बच्ची की गुमशुदगी का पता लगते ही नौजवान भारत सभा के कार्यकर्ताओं द्वारा अन्य लोगों से मिलकर बच्ची की तलाश शुरू की गई थी। कई घंटे की तलाश के बाद बच्ची की लाश नज़दीक के बेहड़े के बंद कमरे में दबी मिली थी और तब तक दोषी भाग चुके थे।

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आँगनवाड़ी केंद्रों के बुरे हालात

Aganbadi“हम नए साल की ख़ुशियाँ कैसे मना सकते हैं? जब कि सालों से हमारे बुनियादी अधिकारों की तरफ़  सरकारें कोई ध्यान नहीं दे रही हैं!” यह बात एक आँगनवाड़ी केंद्र में काम करने वाली महिला सेख रजिया ने कही है। पिछले लंबे समय से महाराष्ट्र की आँगनवाड़ी कर्मचारी वेतन बढ़ोतरी, स्वास्थ्य भोजन, बच्चों के बैठने के लिए साफ़ और सुरक्षित जगह के प्रबंध, सेवामुक्ति के बाद पेंशन, आदि जैसी बुनियादी माँगों के लिए संघर्ष कर रही हैं। इस संघर्ष के तहत बीती 3 जनवरी को महाराष्ट्र की करीब 8000 आँगनवाड़ी कर्मचारियों ने मुंबई के आज़ाद मैदान में अपनी माँगें लागू करवाने के लिए प्रदर्शन किया।

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मोदी सरकार द्वारा संसद में पारित तीन आपराधिक क़ानूनों से जनता को कितना ख़तरा है?

1भारत के ग्रहमंत्री अमित शाह द्वारा 20 दिसंबर 2023 को संसद में तीन आपराधिक क़ानून पेश किए गए। अमित शाह ने एक घंटे से ज़्यादा समय तक संसद में भाषण दिया और बताया कि कैसे ये क़ानून जनपक्षधर हैं और उन्होंने अंग्रेज़ों के ख़तरनाक क़ानून को बदल दिया है और उनकी सरकार नए भारतीय भावना वाले क़ानून लेकर आई है। इन क़ानूनों को पारित करने से पहले संसद में से विरोधी पक्ष के 150 संसद सदस्यों को निलंबित कर दिया गया था। अमित शाह के भाषण के बाद ये तीन क़ानून बिना किसी बहस के उसी दिन ही पारित हो गए और राष्ट्रपति ने भी क़ानून लागू करने की अनुमति दे दी है। मोदी भारत को ‘मदर ऑफ़ डेमोक्रेसी’ (जनवाद की माता) कहता है, लेकिन यह कहते हुए उसे ज़रा-सी भी शर्म नहीं आती। जिस संसद में क़ानून बिना किसी बहस के पास हो जाएँ और विरोधी पक्ष को बोलने ना दिया जाए, वहाँ कितना जनवाद है, हम अंदाज़ा लगा सकते हैं।

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आबादी: एक समस्या? •मनाली चक्रवर्ती

2(आबादी को एक बड़ी समस्या के रूप में पेश किया जाता है। इसके बारे में मनाली चक्रवर्ती ने बहुत ही दिलचस्प लेख लिखा था जोवैकल्पिक आर्थिक सर्वे, 2009-2010’ में छपा था।मुक्ति संग्राममें छापने के लिहाज से लेख थोड़ा लंबा होने के चलते हम इसे दो किश्तों में प्रकाशित कर रहे हैं। यह पहली किश्त है।)

दोस्तों-परिचितों से गपशप करते हुए कितनी बार बात आबादी पर आकर रुकती है। यह हम सबका अनुभव है – पानी की समस्या, बिजली की समस्या, रोज़ी-रोटी की समस्या, ग़रीबी-बदहाली की समस्या, जरायम और तस्करी की समस्या, आदि-आदि, ले-देकर सारी समस्याओं की जड़ हमारी विशाल आबादी है। इस बात पर कमोबेश एक आम राय-सी बन जाती है। अगर आप भी इस तर्क से सहमत हैं, तो आप आश्वस्त रहिए आप बहुमत में हैं। और हों भी क्यों नहीं, मानव जाति की आबादी आज तकरीबन साढ़े छः अरब (बिलियन) है, जो कि मानव इतिहास में पहली बार हुआ है। हमारी अपनी देश की आबादी करीबन 110 करोड़ है, यानी हर छठा व्यक्ति भारतीय है। चारों तरफ़ जहाँ देखिए – सरकार से लेकर बुद्धिजीवी वर्ग, युवा पीढ़ी से लेकर वयोवृद्ध – इस “विकराल” समस्या से भीषण चिंतित हैं और उससे निपटने की फि़क्र में जुटे हुए हैं। देशी-विदेशी ग़ैर-सरकारी और सरकारी संस्थाएँ इस समस्या से जूझने के लिए परियोजनाएँ बना रही हैं, अरबों-खरबों रुपए उड़ेल रही हैं। यू.एन.एफ़.पी.ए. (युनाइटेड नेशंस पॉपुलेशन फ़ंड) एक पूरा संस्थान है, जो 1967 से आबादी पर नियंत्रण के कार्यक्रमों में जुटा है। ज़ाहिर है उनकी सारी परियोजनाएँ तीसरी दुनिया के देशों पर केंद्रित हैं।

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धारा 295-ए और इसके तहत नाजायज़ पुलिस केस रद्द करवाने के लिए आवाज़ बुलंद

295Aपंजाब पुलिस द्वारा पंजाब के अलग-अलग हिस्सों में जनवादी अधिकारों के लिए आवाज़ उठाने वाले कार्यकर्ताओं और आम नागरिकों पर धारा 295 और 295-ए के तहत पुलिस केस दर्ज करने के ख़िलाफ़ पूरे पंजाब में आवाज़ उठाई गई है। गुज़री 5 फ़रवरी को लुधियाणा में तीस से ज़्यादा जनसंगठनों, जनवादी अधिकार कार्यकर्ताओं, लेखकों, पत्रकारों आदि तबक़ों के मंचों की मीटिंग हुई, जिसमें इसके ख़ि‍लाफ़ ज़ोरदार संघर्ष छेड़ने का ऐलान किया गया। 27 फ़रवरी को देश भगतसिंह यादगार हाल, जलंधर में संयुक्त रोष कन्वेंशन और प्रदर्शन किया जाएगा। कन्वेंशन से पहले संगठनों का एक प्रतिनिधिमंडल इस संबंध में पंजाब के मुख्यमंत्री से मुलाक़ात करेगा।

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कॉमरेड लेनिन की याद में कार्यक्रमों का आयोजन

Lenin Smriti sirsa21 जनवरी 2024 को विश्व मज़दूर वर्ग के महान नेता और शिक्षक कॉमरेड लेनिन की 100वीं बरसी थी। उनकी याद में मुक्ति संग्राम मज़दूर मंच और शहीद भगतसिंह स्टडी सर्किल द्वारा विचार-चर्चा कार्यक्रमों का आयोजन किया गया। लुधियाणा में मुक्ति संग्राम मज़दूर मंच द्वारा मज़दूर पुस्तकालय में ‘लेनिन स्मृति बैठक’ का आयोजन किया गया, जिसमें पंजाबी मार्क्सवादी पत्रिका ‘प्रतिबद्ध’ के संपादक मुख्त वक्ता थे। शहीद भगतसिंह स्टडी सर्किल द्वारा चंडीगढ़, सिरसा, पटियाला और अमृतसर में कार्यक्रम किए गए, जिनमें नमिता, मानव (चंडीगढ़), छिंदरपाल, डॉ. सुखदेव (सिरसा), गुरप्रीत (अमृतसर), नवजोत (पटियाला) ने कॉमरेड लेनिन के जीवन और विचारों के बारे में बतौर मुख्य वक्ता बात रखी।

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राजनीति को शिक्षा-शास्त्र के साथ ना गड़बड़ाया जाए – व्ला. इ. लेनिन

4ऐसे काफ़ी सामाजिक-जनवादी हैं जो हर बार, ज्यों ही पूँजीपतियों या सरकार के साथ किसी इक्की-दुक्की लड़ाई में मज़दूरों की हार हो जाती है, त्योंही निराशा के गर्त में डूब जाते हैं और, जनता पर हमारे प्रभाव की मात्रा की कमी की ओर संकेत करते हुए, मज़दूर आंदोलन के महान और उदात्त लक्ष्यों के उल्लेख पर भी नाक-मुँह सिकोड़ते हुए उन्हें रद्द कर देते हैं। वे कहते हैं कि इस तरह की चीज़ों के लिए कोशिश करने वाले हम कौन और क्या हैं? वे कहते हैं कि, जब आम लोगों के मनोभावों तक का पता हमें नहीं है, जबकि उनके साथ घुलने-मिलने में और मेहनतकश जनसमुदायों को जगाकर उठाने में हम असमर्थ हैं, तब इस तरह की बातें बघारना बिल्कुल बेकार है कि क्रांति में सामाजिक-जनवादी (कम्युनिस्ट – संपादक) हिरावल दस्ते की भूमिका अदा करेंगे। पिछले मई दिवस के अवसर पर सामाजिक-जनवादियों को जो पीछे हटना पड़ा था, उसकी वजह से यह भावना और भी अधिक तीव्र हो गई है।

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अस्कद मुख़्तार का उपन्यास ‘बहनें’

5अस्कद मुख़्तार का जन्म 23 दिसंबर 1920 को उज़्बेकिस्तान के फ़रग़ना में हुआ। अस्कद मुख़्तार ने अपनी कविताओं, कहानियों और उपन्यासों के ज़रिए लोगों के हितों की नुमाइंदगी की। उन्होंने उज़्बेकिस्तान के लोगों पर सोवियत सत्ता ने जो प्रभाव डाला, उसे अपनी क़लम के ज़रिए सूत्रबद्ध किया।

1917 की रूसी क्रांति ने पूर्वी उज़्बेक लोगों के जीवन को कैसे नया आयाम दिया, इसी का उल्लेख उनके प्रसिद्ध उपन्यास ‘बहनें’ में किया गया है। ‘बहनें’ उपन्यास 1950 के दशक में प्रकाशित हुआ था। जैसा कि नाम से ही पता चलता है कि यह रचना औरतों के बारे में है। लेकिन यह सिर्फ़ सगी बहनों की कहानी नहीं है। पाठक किसी ग़लतफ़हमी में ना रहें, यह उपन्यास उन मज़दूर औरतों के बारे में है, जिनका जीवन आपस में जुड़ा हुआ है, जिनके हित लूट और जुल्म के ख़िलाफ़ लड़ाई में एक हैं।

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पत्रकारिता का गला घोंटता दुनिया का सबसे बड़ा ‘लोकतंत्र’

Press freedomदुनिया में भारत को सबसे बड़े ‘लोकतंत्र’ के रूप में जाना जाता है, लेकिन असल में यहाँ लोकतंत्र केवल पूँजीपतियों का है, बाक़ी लोगों के लिए सच बोलने और राय व्यक्त करने की स्वतंत्रता बहुत सीमित है। दुनिया में आर.एस.एफ़. नामक संस्था द्वारा वैश्विक स्तर पर प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर हर साल एक सूचकांक जारी किया जाता है। विश्व प्रेस की स्वतंत्रता सूचकांक 2023 में भारत की रैंकिंग 180 देशों में से गिरकर 161वें स्थान तक पहुँच चुकी है। यह रैंकिंग पहले भी बहुत अच्छी नहीं थी; 2010 में यह 112 और 2014 में 140 थी। रिपोर्टों के मुताबिक़, साल 2023 देश में पत्रकारिता के लिए अब तक का सबसे काला साल रहा है। एक रिपोर्ट के मुताबिक़ अकेले उत्तर प्रदेश में योगी सरकार के कार्यकाल के दौरान 2017 से 2022 तक 138 पत्रकारों पर हमले हुए, जिनमें 48 में गुंडों के ज़रिए हमले हुए, 66 को गिरफ़्तार किया गया और 12 पत्रकारों की हत्या कर दी गई।

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अदाणी के मुनाफ़े बढ़ाने के लिए हसदेव जंगल की तबाही कांग्रेस और भाजपा का जनता से धोखा

Hasdeo forestहसदेव अरंड जंगल छत्तीसगढ़ के कोरबा और सरगुजा जि़लों में फैला हुआ है। यह जंगल जैविक विविधता के नज़रिए से भारत के सबसे महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधनों में से एक है। यह जंगल भारत में अलोप होने का सामना कर रही जानवरों की प्रजातियों के अलावा, दुर्लभ वनस्पति के लिए भी जाना जाता है। इस इलाक़े में गोंड, ओरान के साथ कुछ और आदिवासी क़बीले के लोग भी रहते हैं। पर पिछले कुछ समय से भारत का सबसे बड़ा पूँजीपति गौतम अदाणी इन जंगलों को अपने क़ब्ज़े में करने के लिए हर तरीक़ा अपना रहा है। इस काम में भारत के एकाधिकारी पूँजीपति वर्ग की दोनों मनपसंद पार्टियाँ, भाजपा और कांग्रेस अलग-अलग समय पर अलग-अलग तरह से उसकी कठपुतली बनी हुई हैं। दरअसल इस जंगल में बड़ी मात्रा में कोयले के भंडार पाए जाते हैं। यह कोयला ज़मीनी सतह के काफ़ी नज़दीक ही मौजूद है, जिसके कारण इसे निकालने का ख़र्च काफ़ी कम है। इस वजह से इन कोयला खदानों से बड़े मुनाफ़े हासिल किए जा सकते हैं। पर इस कोयले को निकालने के लिए इस क्षेत्र का 1500 वर्ग किलोमीटर में फैला जंगल काटना पड़ेगा, जिससे यह इलाक़ा बिल्कुल तबाह हो जाएगा। इस काम की शुरुआत भी हो चुकी है। साल 2022 की शुरुआत में जब छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार थी, तब ही तकरीबन 100 एकड़ से अधिक इलाक़े में वृक्षों की कटाई शुरू हो चुकी थी। कांग्रेस के उस समय के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने इसे “राष्ट्र-हित” कहकर जायज़ ठहराया था। अब नवंबर में हुए चुनाव में राज्य में भाजपा की सरकार बन चुकी है। छत्तीसगढ़ में ही हुई एक रैली में मोदी ने यह ऐलान किया था कि आदिवासियों के ‘जल, जंगल और ज़मीन’ को कोई नुक़सान नहीं पहुँचाया जाएगा, पर सरकार बनने के कुछ दिनों बाद ही हसदेव जंगल में अदाणी को कोयला खदान खोदने के लिए हरी झंडी मिल चुकी है। ख़ुद से हुए इस धोखे के ख़िलाफ़ आदिवासी काफ़ी समय से प्रदर्शन कर रहे हैं, लेकिन इंसाफ़ के नाम पर उन्हें झूठे दिलासे दिए जा रहे हैं।

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कैथे कोलवित्ज़ – जर्मनी की लोक कलाकार

Cathe 5“मानव इतिहास के अमर जनांदोलनों पर सवार ये मेहनतकश – हड्डियाँ गलाते, संघर्ष करते और सपने सँजोते हैं; अपनी फूट और अज्ञानता से जकड़े हुए ये कभी-कभार सचेत बग़ावत बनकर उठते हैं और अक्सर ऐसी हस्तियाँ संपूर्ण जगत को इसकी दबी हुई ख़ूबसूरती और अथाह प्रतिभा का नमूना पेश करती हैं, ऐसा नमूना जिसके बिना मानव सभ्यता की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

ऐसी ही हस्ती है जर्मनी की कैथे कोलवित्ज़।”

ये शब्द प्रसिद्ध पत्रकार और भारत के आज़ादी आंदोलन और चीन की क्रांति के लिए आवाज़ बुलंद करने वाली अमेरिकी कार्यकर्ता इग्निस मेडल द्वारा कैथे कोलवित्ज़ पर लिखे लेख से हैं।

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मज़दूरों को युद्ध में झोंकने पर आमादा भारत सरकार 42,000 मज़दूर इज़राइल भेजने के लिए इज़राइल हमलावरों से समझौता!

मजदूर इजरायलइज़राइल हमलावरों ने फि़लिस्तीन के लोगों पर अन्यायपूर्ण युद्ध थोपा हुआ है। इस युद्ध के कारण इज़राइल के पाँच लाख लोग इज़राइल छोड़कर दूसरे देशों में जा चुके हैं। दूसरे देशों से आकर इज़राइल में काम करने वाले मज़दूर भी युद्ध के कारण इज़राइल छोड़ रहे हैं। लगभग 17,000 मज़दूर अपने देशों को वापस चले गए हैं। जहाँ दुनिया-भर से फि़लिस्तीन के पक्ष में बड़े-बड़े रोष-प्रदर्शन हो रहे हैं, वहीं फि़लिस्तीनी लोगों पर हो रहे भयंकर जुल्म के ख़िलाफ़ दुनिया-भर से इज़राइल के ख़िलाफ़ ज़ोरदार आवाज़ें उठ रही हैं। उसी समय भारत सरकार का बेशर्मी भरा मज़दूर विरोधी क़दम सामने आया है। विदेश मंत्री ने 42,000 भारतीय निर्माण मज़दूरों को इज़राइल भेजने का समझौता किया है। इससे पहले भी 18,000 भारतीय मज़दूर इज़राइल में हैं। हरियाणा सरकार के ‘राष्ट्रीय कौशल रोज़गार विकास मंत्रालय’ द्वारा ग़रीबी और बेरोज़गारी से बदहाल 10,000 मज़दूरों को निर्माण क्षेत्र में काम करने की नौकरियाँ निकाली हैं। जब पूरी दुनिया को यह बात पता है कि युद्ध के कारण इज़राइल-फि़लिस्तीन का एक भी कोना सुरक्षित नहीं, वहाँ भारतीय हुकूमत इज़रायली हमलावरों के पक्ष में खड़ी है।

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धारा 295-ए क्यों रद्द होनी चाहिए?

smash-fascism-white-outlineधारा 295-ए भारत के क़ानूनों की एक ग़ैर-जनवादी धारा है, जिसे ख़त्म किया जाना चाहिए। यह धारा धार्मिक भावना को ठेस पहुँचने को बहाना बनाकर जुबानबंदी करने का सरकारी हथियार है, जिसका इस समय भाजपा पूरी तरह ग़लत इस्तेमाल कर रही है। सिर्फ़ एक यही धारा नहीं है, बल्कि देशद्रोह (124-ए) और यू.ए.पी.ए. जैसी अन्य ऐसी कई धाराएँ हैं, जो नागरिक अधिकारों को ख़त्म करके हुकूमत के दमन का हथियार बनती हैं। भारत का संविधान अंग्रेज़ों के औपनिवेशिक संविधान की ही पैदाइश है। इसकी बहुत सारी दमनकारी धाराएँ अंग्रेज़ों वाली ही हैं, जो भारत की जनता का दमन करने के मक़सद के लिए बनाई गई थी। इसलिए ऐसी धाराओं को ख़त्म करना और नागरिकों के अधिकारों की गारंटी और हुकूमत के हाथों में बेहिसाब ताक़तें ना देने वाले क़ानून बनाने की माँग आज के समय में जनवादी अधिकारों की अहम माँग बनती है।

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अर्जेंटीना की जनता फिर से संघर्ष की राह पर!

7ख़ाली बर्तनों के बजाने का शोर, जब तक वह कुर्सी नहीं छोड़ता के नारे अर्जेंटीना के नए चुने गए राष्ट्रपति जेवियर गेरार्डो माइली का स्वागत कर रहे हैं। 5 जनवरी को राजधानी बुएनोस आयर्स और अर्जेंटीना के कई इलाक़ों की सड़कों पर माइली की जनविरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ यह मंजर नज़र आया।

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बहरे हुक्मरानों को सुनाने के लिए नौजवानों की संसद में ललकार : तानाशाही नहीं चलेगी! • संपादकीय

13 दिसंबर 2023 को संसद के भीतर और बाहर कुछ नौजवानों ने गैस कनस्तरों का इस्तेमाल करके रंगीन धुँआ फैलाते हुए मोदी हुकूमत की तानाशाही, देश में मज़दूरों, मेहनतकशों, नौजवानों की आवाज़ को अनसुना करने, बेरोज़गारी, मणिपुर में महिलाओं पर अत्याचार आदि मुद्दों पर इंसाफ़ की माँग करते हुए जोशीले नारे लगाकर रोष प्रदर्शन किया। नौजवानों का कहना है कि हुक्मरानों द्वारा जनता के हक़ की आवाज़ हर जगह अनसुनी की जा रही है। आवाज़ बुलंद करने वाले लोगों का दमन किया जा रहा है, जेलों में ठूँसा जा रहा है। इसलिए अपनी आवाज़ बुलंद करने के लिए उन्होंने रोष प्रदर्शन का यह रास्ता अपनाया है।

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पाठक मंच – इस मज़दूर विरोधी व्यवस्था को बदल डालो

कुछ दिन पहले लुधियाणा के औद्योगिक इलाक़े में एक मज़दूर से मिलने उसके कमरे पर गया। वह लुधियाणा के बुढ्ढा नाला इलाक़े में रहता है। इस नाले में लुधियाणा की डाइंग और अन्य कारख़ानों का बिना फ़िल्टर किया हुआ गंदा पानी आकर गिरता है और लुधियाणा के मज़दूर इलाक़ों में बीमारियाँ फैलाता हुआ सतलुज में मिल जाता है। उस मज़दूर का एक छोटा-सा कमरा है, जिसमें ना कोई खिड़की है, ना रोशनदान है। उस कमरे में 3 व्यक्ति रहते हैं। आँगन की 3 मंज़िलों के करीब 24-25 कमरों के लिए तीन बाथरूम हैं। आँगन के ये हालात हैं कि अगर एक कमरे में तड़का लगाया जाए तो सारे आँगन में धुआँ हो जाता है।

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मार्शल मशीन्स लिमिटेड के मज़दूरों की 41 दिन लंबी हड़ताल अहम प्राप्तियों के साथ ख़त्म हुई

सी.एन.सी. खराद मशीनें बनाने वाली कंपनी मार्शल मशीन्स लिमिटेड (लुधियाणा) के मज़दूरों की कारख़ाना मज़दूर यूनियन के नेतृत्व में हड़ताल 19 दिसंबर की रात करीब 8 बजे समाप्त हो गई है। 9 नवंबर 2023 से शुरू हुई इस हड़ताल में मज़दूर जुझारू ढंग से डटे रहे। मज़दूरों को झुकाने की मालिकों की तमाम साजि़शें नाकाम कर दी गईं।

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भारत की दवाओं के अनेकों नमूने फेल : लोगों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ है नक़ली दवाओं का कारोबार

भारत की ‘केंद्रीय ड्रग मानक कंट्रोल संस्था’ द्वारा ताज़ा जारी रिपोर्ट के मुताबिक़ अक्टूबर महीने तक भारत में जाँच की गई दवाओं के 6% नमूने फेल हो गए हैं। छोटी और दरमियानी कंपनियों के मामले में तो 65% कंपनियाँ तयशुदा मानकों से निचले स्तर की दवाएँ बना रही हैं। चाहे अन्य बहुत अहम मामलों की तरह यह रिपोर्ट भी गोदी मीडिया द्वारा दबा दी गई और इस पर कोई चर्चा नहीं हुई, पर इस रिपोर्ट ने फिर से भारत में नक़ली दवाओं और घटिया दवाओं के बेहद बड़े और जानलेवा कारोबार पर सवाल खड़े कर दिए हैं।

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कमरतोड़ महँगाई से पिस रही यूरोप की जनता

Poor Homeless Old Woman Sells Flowers On The Street In An Attempलाखों सालों के मानव विकास के बाद आज तकनीक के क्षेत्र में तथाकथित ‘बनावटी चेतना’ की बात हो रही है यानी अपार तरक़्क़ी की बातें हो रही हैं। लेकिन विज्ञान की इस अपार तरक़्क़ी के बावजूद मेहनतकश जनता आज भी बुनियादी ज़रूरतों के लिए जद्दोजहद करने को मजबूर है। ऐसी ही एक लड़ाई है खाद्य सुरक्षा के लिए, यानी भरपेट पौष्टिक भोजन के लिए। पहले के समाजों में अक्सर अकाल पड़ते थे, अनाज की कमी होती थी, लेकिन आज दुनिया-भर में अनाज की बहुतायत है। लेकिन इसके बावजूद भी धरती पर करोड़ों लोगों को अच्छा भोजन नहीं मिल पाता। हम अक्सर एशिया और अफ़्रीका के देशों में लाखों लोगों के भूखे पेट सोने की कहानियाँ सुनते रहे हैं। लेकिन आज हम धरती के उस हिस्से में भोजन की कमी के बारे में बात करेंगे, जो अपनी तरक़्क़ी और ख़ुशहाली के लिए जाना जाता है यानी यूरोपीय महाद्वीप की।

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भारत में औरतों के विरुद्ध अपराधों में बेहिसाब बढ़ोतरी!

भारतीय समाज औरतों के लिए एक बर्बर समाज है। यहाँ क़ानूनी तौर पर चाहे औरतों को कई अधिकार प्राप्त हैं, लेकिन असल में उनकी स्थिति दोयम दर्जे के नागरिक और इंसान वाली है। घर से शुरू होकर शिक्षा, नौकरी और समाज के हर हिस्से में उन्हें शारीरिक और मानसिक हिंसा का शिकार होना पड़ता है। कभी यहाँ उन्हें अपनी मर्जी का जीवन साथी चुनने के लिए इज़्ज़त के नाम पर क़त्ल कर दिया जाता है तो कभी दहेज के नाम पर ज़िंदा जला दिया जाता है। हर रोज़ अख़बार औरतों के साथ क्रूर बलात्कार की ख़बरों से भरे रहते हैं। ऐसे माहौल में औरतों को भयानक मानसिक तनाव में अपना जीवन गुज़ारना पड़ता है।

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एनिमल – आर.एस.एस.-भाजपा के नाज़ी एजेंडे को स्थापित करतीएक ख़तरनाक फि़ल्म

इन दिनों संदीप रेड्डी वांगा द्वारा निर्देशित फि़ल्म ‘एनिमल’ पूरे भारत और ख़ासतौर पर पंजाब में काफ़ी चर्चा में रही है। इसमें रणबीर कपूर ने नायक की भूमिका निभाई है। फि़ल्म में दिखाई गई हिंसा और ‘अल्फ़ा मेल’ जैसे विषयों के कारण शोभा डे जैसे कई समीक्षकों ने जहाँ इसे औरत विरोधी घोषित किया है, वहीं पंजाब के सिख भाईचारे के एक हिस्से द्वारा इसका स्वागत इसलिए किया गया है, क्योंकि इसमें सरदारों की पेशकारी अन्य हिंदी फि़ल्मों जैसी घिसी-पिटी नहीं है। लेकिन फि़ल्म का थोड़ा गंभीरता से अध्ययन यह दर्शाता है कि कैसे यह फि़ल्म मौजूदा राजनीतिक और आर्थिक हालातों में आर.एस.एस.-भाजपा का हिटलरशाही नाज़ी एजेंडा दर्शकों को परोसती है।

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पूरे पंजाब से आई आवाज़, फ़ि‍लिस्तीन को करो आज़ाद!

पंजाब के जनवादपसंद विभिन्न राजनीतिक संगठनों ने नए साल के पहले दिन पूरे पंजाब में अलग-अलग जगहों पर फ़ि‍लिस्तीन पर नाज़ायज इज़राइली हमले और बेगुनाह फ़ि‍लिस्तीनियों के हो रहे क़त्लेआम के ख़िलाफ़ ज़ोरदार आवाज़ बुलंद करने का आह्वान किया गया था। इस आह्वान के तहत 1 जनवरी 2024 को पंजाब (चंडीगढ़ समेत) में जि़ला स्तरों और कुछ तहसील स्तरों पर रोष प्रदर्शन किए गए। लुधियाणा में 31 जनवरी 2023 को रोष प्रदर्शन किए गए।

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अपनी असुरक्षा से – अवतार ‘पाश’

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यदि देश की सुरक्षा यही होती है

कि बिना ज़मीर होना ज़िन्दगी के लिए शर्त बन जाये

आँख की पुतली मेंहाँके सिवाय कोई भी शब्द

अश्लील हो

और मन बदकार पलों के सामने दण्डवत झुका रहे

तो हमें देश की सुरक्षा से ख़तरा है

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चिंगारी, जो ज्वाला बनेगी!

lenin-petrograd-510x397(21 जनवरी 2024 विश्व मज़दूर वर्ग के महान अध्यापक और नेता व्ला.. लेनिन की 100वीं बरसी है। उनकी याद में हम यहाँ मरीया प्रिलेज़ायेवा की किताबलेनिन कथाका एक अंश प्रकाशित कर रहे हैं कि कैसे कामरेड लेनिन ने रूस में मज़दूर आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाने वाले मज़दूरों के क्रांतिकारी अखबार ईस्क्रा के प्रकाशन का काम शुरू किया।)

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रामदेव की काली कमाई के बारे में नए खुलासे

Ramdevपहले 2011 में दिल्ली जंतर-मंतर पर केजरीवाल एंड कंपनी के साथ, भ्रष्टाचार/काले धन के लिए उछल-कूद मचाने वाले, फिर 2014 के चुनाव से पहले भाजपा की गोद में बैठकर मोदी द्वारा काला धन वापस लाने का दावा करने वाले योगगुरु/कारोबारी रामदेव की ख़ुद की काली कमाई के बारे में कुछ अहम खुलासे सामने आए हैं।

‘रिपोर्टर्स कलेक्टिव’ नामक संस्था ने पिछले महीने के अंत में एक रिपोर्ट प्रकाशित की है, जिसमें यह तथ्य सामने आया है कि धर्म, आयुर्वेद, स्वदेशी आदि के नाम पर अपना अरबों का कारोबार खड़ा करने वाले रामदेव ने हरियाणा में ‘शेल’ (फ़र्ज़ी) कंपनियों के ज़रिए कई एकड़ ज़मीन ख़रीदी और बेची है, जिसके लिए उसे इस इलाक़े में ‘रियल एस्टेट’ का बादशाह माना जाता है।

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टेसला मज़दूरों की बड़ी हड़ताल

6कार बनाने वाली कंपनी टेसला का मालिक एलन मस्क दुनिया का सबसे अमीर पूँजीपति है। अक्सर उसका उदाहरण देकर यह कहा जाता है कि अपनी मेहनत और अकल से हर कोई अमीर बन सकता है। लेकिन सच यह है कि शोषण आधारित इस व्यवस्था में किसी पूँजीपति की कामयाबी उसके पास काम करने वाले मज़दूरों की लूट पर टिकी होती है। स्वीडन में टेसला कंपनी की मैनेजमेंट के ख़ि‍लाफ़ हो रही हड़तालें इस बात को साबित करती हैं। यह साफ़ साबित करती हैं कि पूँजीपतियों की अमीरी का रास्ता, मज़दूरों के हक़ कुचलते हुए साफ़ होता है और ग़रीबी निकम्मेपन से नहीं, बल्कि लूट आधारित मौजूदा आर्थिक सामाजिक व्यवस्था से पैदा होती है।

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क्यों हो रही हैं भारत में हर घंटे बीस आत्महत्याएँ?

2भारत सरकार की संस्था राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा हर वर्ष की तरह वर्ष 2022 में अपराध और हादसों के बारे में अपनी रिपोर्टें जारी की गई हैं। इन सभी रिपोर्टों में एक रिपोर्ट आत्महत्याओं को लेकर है, जिस पर ध्यान दिया जाना चाहिए। इस रिपोर्ट के अनुसार 2022 में 1,70,924 आत्महत्याएँ दर्ज हुई हैं यानी भारत में हर महीने 14,244, हर रोज़ 475 और हर घंटे करीब 20 आत्महत्याएँ हुई हैं। हर तीन मिनट में एक व्यक्ति अपनी ज़िंदगी ख़त्म करने के लिए मजबूर होता है। पेशे के आधार पर अगर बात करें, तो आत्महत्या करने वालों में 41,433 दिहाड़ीदार मज़दूर, 25,309 घरेलू स्त्रियाँ, 18,357 ख़ुद के काम-धंधों में लगे, 15,783 बेरोज़गार, 14,395 नौकरीपेशा लोग, 11,290 कृषि क्षेत्र में लगे लोग (5,207 किसान और 6,083 कृषि मज़दूर) और 13,044 छात्र और अन्य लोग शामिल हैं। उम्र के हिसाब से बात करें, तो सबसे ज़्यादा (1,13,433) आत्महत्याएँ 18 से 45 साल के आयुवर्ग की हुई हैं और 18 साल से कम उम्र के 10,204 बच्चों ने आत्महत्या की है। सनद रहे कि भारत में अनेकों अपराध और आत्महत्याएँ आदि क़ानूनी प्रक्रिया में दर्ज नहीं होते हैं। इसलिए असल में आत्महत्याओं की संख्या उपरोक्त आँकड़ों से कहीं ज़्यादा है।

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पहले समाजवादी राज्य का आँखों देखा वर्णन करती पुस्तक ‘स्तालिन युग’

Stalin yugअन्ना लुई स्ट्रांग द्वारा ‘स्तालिन युग’ किताब नवंबर 1956 में लिखी गई थी, जो समाजवादी सोवियत संघ का आँखों देखा विवरण पेश करती है। अन्ना एक अमेरिकी पत्रकार थीं, जो जीवन-भर अपने लेखन और रिपोर्टों के ज़रिए समाजवादी सोवियत यूनियन और चीन का आँखों देखा चित्रण पेश करती रहीं। अन्ना की अनेकों किताबें सोवियत यूनियन और चीन में क्रांति के समय पर केंद्रित हैं।

कामरेड लेनिन के नेतृत्व में रूस की अक्टूबर क्रांति (1917) से इतिहास का एक नया दौर शुरू हुआ। क्रांति के बाद के दौर में वहाँ रूसी और अन्य राष्ट्रीयताओं ने मिलकर सोवियत समाजवादी गणतंत्रों का संघ (यू.एस.एस.आर.) नाम के समाजवादी देश का निर्माण किया (1922), जिसे सोवियत संघ भी कहा जाता है। इस दौर को अमर बनाने वाले पहले समाजवादी देश के निर्माण का नेतृत्व करने वाले कामरेड जोसेफ़ स्तालिन के दौर में सोवियत यूनियन ने जो कर दिखाया वह एक युग साबित हुआ।

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क्यों उठी रही है संसार में जनसंघर्षों की नई लहर?

14-12-Trade-Union-Protest-Brusselsयू.के. के मज़दूर सरकार के एक नादरशाही फ़रमान का विरोध कर रहे हैं। हड़ताल क़ानून, जो 9 दिसंबर 2023 को लागू हुआ है, असल में हड़ताल विरोधी क़ानून है। इसके मुताबिक़ मज़दूरों को हड़ताल के दौरान आठ क्षेत्रों में सीमित समय के लिए काम करना ही पड़ेगा। ऐसा ना करने की सूरत में मालिक के पास मज़दूर पर क़ानूनी कार्यवाही करने का अधिकार होगा। यानी हड़ताल करना केवल एक खानापूर्ति या प्रतीकात्मक कार्रवाई बनकर रह जाएगी। बेल्जियम में भी ऐसे ही एक प्रस्तावित क़ानून के विरोध में मज़दूर सड़कों पर हैं।

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पाँच राज्यों में चुनावों के नतीजों के मायने: सांप्रदायिक फ़ाशीवादी उभार से लड़ने के लिए पूँजीवादी पार्टियों से उम्मीद छोड़ो!  – एक मज़बूत मज़दूर आंदोलन खड़ा करो!

ELECTIONनवंबर 2023 में पाँच राज्यों में विधान सभा चुनाव हुए हैं। इनमें तीन राज्यों – राजस्थान, मध्य प्रदेश, और छत्तीसगढ़ में इस बार एकाधिकारी पूँजीपतियों की पसंदीदा पार्टी भाजपा ने एकतरफ़ा जीत हासिल की है। वहीं तेलंगाना में पूँजीपतियों की दूसरी और पुरानी भरोसेमंद पार्टी कांग्रेस ने कुर्सी हथियाने में सफलता पाई है। मिज़ोरम में भी सरकार बदली है और नई बनी पार्टी ज़ोरम पीपुल्स मूवमेंट ने मिज़ो नेशनल फ्रंट को सत्ता से बेदख़ल कर दिया है। चुनावी नतीजे को देखकर कांग्रेस को भारी झटका लगा है, वहीं भाजपा सातवें आसमान पर है। कांग्रेस छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में अपनी जीत को पक्का मानकर बैठी थी और राजस्थान में अपने आपको जीत के नज़दीक समझ रही थी लेकिन नतीजों ने कुछ और ही कहानी बना दी है। आने वाले लोकसभा चुनाव में भाजपा को हराने के लिए “इंडिया” गठजोड़ का हिस्सा बने अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों के पहलवान अखाड़े में उतरकर दंड-बैठक कर रहे थे। पर नतीजा देखकर उन सभी को साँप सूँघ गया है। दूसरी तरफ़ बुद्धिजीवियों का बड़ा हिस्सा जो ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के बाद राहुल गाँधी पर लट्टू हुए पड़े थे और राहुल गाँधी को पंखी झुलाते हुए कह रहे थे कि यही एकमात्र योद्धा है, जो फ़ाशीवाद से बचा सकता है, को भी बड़ा झटका लगा है। बुद्धिजीवियों के ये समूह बेहोशी के आलम में चुनाव नतीजों के बाद यह अलाप रहे हैं कि “लोग मूर्ख है”, “ई.वी.एम. ही एकमात्र कारण है भाजपा की जीत का” या “लोग है ही इसी लायक”। पाँच राज्यों के चुनाव नतीजों से ज़्यादा चर्चा का विषय भाजपा द्वारा लाए गए नए मुख्यमंत्री भी बने हुए हैं। आइए अब हम यह समझने की कोशिश करें कि भाजपा किस तरह जीत पाई और इस जीत के क्या अर्थ है।

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उत्तरकाशी सुरंग हादसा : मोदी सरकार की प्रकृति विरोधी नीतियों का नतीजा – संपादकीय

Uttarkash12 नवंबर 2023 को उत्तराखंड के उत्तरकाशी ज़िले के पहाड़ी क्षेत्र में बन रही एक सुरंग के अचानक गिर जाने से 41 मज़दूर मलबे में फँस गए। दुर्घटना के 17 दिन बाद, विदेशी सुरंग विशेषज्ञों की मदद से मज़दूरों को वहाँ से निकाला गया। चाँद तक पहुँचने की बातें करने वाली भारत सरकार ने इस राहत कार्य के ज़रिए अपनी मशहूरी करने के लिए अपना पूरा ज़ोर लगाया। सरकार पक्षीय मीडिया दिन-रात मोदी सरकार के मज़दूरों के प्रति झूठी फ़िक्र को बढ़ा-चढ़ाकर प्रचार करता रहा। इस सारे मामले में जो असल सवाल बनता है, वह है कि इस पहाड़ी क्षेत्र में मज़दूरों, स्थानीय जनता को ख़तरे में डालकर, इस सुरंग के निर्माण जैसे क़ुदरत और मनुष्य विरोधी प्रोजेक्ट को मंजूरी ही क्यों मिली और क्या इस सड़क की वास्तव में कोई ज़रूरत भी थी? इस सुरंग का ठेका जिस कंपनी को मिला है, उसका रिकॉर्ड ऐसे मामलों में पहले से ही बहुत ख़राब है। इस सुरंग को नवयुग इंजीनियरिंग नाम की एक कंपनी बना रही थी। 3 महीने पहले ही महाराष्ट्र के ठाणे इलाक़े में, मुंबई-समृद्धि सड़क योजना के तहत एक पुल के निर्माण के दौरान क्रेन गिरने से 20 मज़दूर मारे गए थे। इस प्रोजेक्ट का ठेका भी इसी नवयुग इंजीनियरिंग कंपनी को ही मिला था। इस दुर्घटना के बाद भी कंपनी से अगले प्रोजेक्ट के ठेके वापस नहीं लिए गए और केवल छोटे-मोटे स्थानीय ठेकेदारों पर ही एफ़.आई.आर. दर्ज की गईं। यह सुरंग सिलकीरा-बारकोट को आपस में जोड़ती है और भारत सरकार की चारधाम सड़क योजना का हिस्सा है। भारत सरकार इस योजना के तहत उत्तराखंड में स्थित चार तीर्थ स्थानों को सड़क के ज़रिए जोड़कर राजनीतिक लाभ उठाना चाहती है। इस योजना की शुरुआत से ही स्थानीय जनता और भू-विज्ञानी इसका विरोध कर रहे थे, लेकिन सरकार ने किसी की नहीं सुनी और सड़क निर्माण जारी रखा, जिसका नतीजा मलबे के नीचे फँसे 41 मज़दूरों को भुगतना पड़ा।

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बदलते हालात

Screenshot 2023-12-12 103824कुछ दिन पहले हम दोपहर के समय मज़दूरों के क्रांतिकारी अख़बार मुक्ति संग्राम का प्रचार करने के लिए प्रिया कालोनी मेहरबान (लुधियाणा) में गए थे। कारख़ानों में दोपहर के खाने की छुट्टी हो चुकी थी। हम उस रास्ते पर प्रचार कर रहे थे, जहाँ से मज़दूर खाना खाने के लिए गुज़रते हैं। मैं 7-8 साल पहले उसी रास्ते पर प्रचार कराता था, पर काफ़ी लंबे समय से मुझे दोबारा उस इलाक़े में प्रचार करने का मौक़ा नहीं मिला। अब जब मैंने वहाँ प्रचार किया, तो मुझे वहाँ पहले से काफ़ी बदलाव नज़र आया।

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मैकडॉनाल्ड्स के कर्मचारियों की दर्द-भरी कहानी

ice-cream-mcdonaldsआपने फ़ास्ट फ़ूड कंपनी मैकडॉनाल्ड्स का नाम तो सुना ही होगा और आपमें से कई लोगों ने इसके स्टोर पर जाकर कुछ-न-कुछ खाया भी होगा। खाते-पीते घरों के लोग जिस कंपनी के बर्गर बड़े चाव से खाते हैं, इन चीज़ों को बनाने वाले और उन तक डिलीवर करने वाले उन मज़दूरों के बारे में शायद ही कोई सोचता है, क्योंकि मीडिया के विज्ञापनों में भी ये मज़दूर पूरी तरह से ग़ायब हैं।

मैकडॉनाल्ड्स का 100 से अधिक देशों में कारोबार होता है। एक मज़दूर के तौर पर मैं भी इस बड़े बिज़नेस का एक छोटा-सा हिस्सा रहा हूँ। चंडीगढ़ में मैकडॉनाल्ड्स स्टोर्स में काम करने वाले मज़दूरों को प्रति घंटे लगभग 53 रुपए का भुगतान किया जाता है, यानी 9 घंटे के दिन के लिए 477 रुपए। लेकिन कटकटा कर पूरे महीने की सैलरी लगभग दस हज़ार रुपए होती है। इतनी बड़ी कंपनी और इतने कम वेतन पर बिना रुके काम  करने वाले मज़दूरों का, जिसमें युवाओं की संख्या ज़्यादा है, गुज़ारा कैसे होता होगा। इसके बारे में कंपनी के पूँजीपतियों ने कभी नहीं सोचा और ना कभी सोचेंगे। पिछले चार सालों में मैकडॉनाल्ड्स ने महज़ 3 रुपए प्रति घंटे की बढ़ोतरी के साथ 27 रुपए प्रतिदिन की बढोत्तरी की है, जबकि दूसरी ओर 2022 में इसका कारोबार 23 अरब अमेरिकी डॉलर से भी ज़्यादा रहा।

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नारायण मूर्ति का मज़दूर विरोधी बयान: पूँजीपतियों की मज़दूर विरोधी मानसिकता की अभिव्यक्ति

6-1इंफ़ोसिस कंपनी के मालिक नारायण मूर्ति ने पिछले महीने बयान दिया है कि “हमारे नौजवानों को यह कहना चाहिए कि यह मेरा देश है और मुझे इसके लिए हफ़्ते में 70 घंटे काम करने की ज़रूरत है। नेताओं को भी यह पक्का करना होगा। विकसित देश जैसे कि जर्मनी और जापान ने भी ऐसा ही किया है।” यह कोई पहली बार नहीं कि मूर्ति ने ऐसा बयान दिया हो, पहले भी ऐसे उपदेश 2021 में सुनने को मिले थे। मूर्ति के इस बयान को कितने ही पूँजीपतियों ने समर्थन दिया है। ‘ज़िंदल साउथ-वेस्ट’ ग्रुप के मालिक सज्जन मित्तल का इसके समर्थन में कहना है – “यह थकावट का मामला नहीं, बल्कि समर्पण का है। हमें भारत को एक आर्थिक महाशक्ति बनाना होगा, जिस पर हमें गर्व हो।” यह बात असल में इन पूँजीपतियों ने काम के घंटे बढ़ाने के अपने मंसूबों को कथित देशभक्ति के चोगे में लपेटकर पेश किया है। मज़दूरों से ज़्यादा काम लेना इक्के-दुक्के पूँजीपति की इच्छा नहीं है, बल्कि पूरे पूँजीपति वर्ग की गरज है।

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बच्चों के शारीरिक शोषण के विरुद्ध चुप्पी तोड़ो!

19एक अच्छे माहौल में मानसिक और शारीरिक सरगर्मियों से भरपूर बचपन भविष्य के लिए ज़्यादा समझदार और मूल्यवान नागरिक बनाने में सहायक होता है। पर मौजूदा व्यवस्था में बड़े हिस्से का बचपन ख़ुशहाल नहीं होता, अनेकों लोग तो बचपन की बुरी यादों के साथ पूरी उमर जूझते रहते हैं। ये बुरी यादें, बचपन में उनके साथ हुए यौन शोषण, मारपीट आदि की घटनाओं से जुड़े हुए होते हैं। आँकड़ों के अनुसार लगभग 33.6% बच्चे यौन अपराधों से पीड़ित होते हैं। साल 2021 में 1,49,404 मामले बच्चों के ख़िलाफ़ हुए अपराधों के लिए दर्ज किए गए थे। हर बीतते साल इन मामलों में बढ़ौतरी हो रही है। इसी साल मार्च महीने में भारत के पुलिस अधिकारियों, मंत्रियों, सोशल मीडिया कंपनियों और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने एक कांफ़्रेंस की थी, जिसका मुद्दा था – यौन शोषण से पीड़ित बच्चों से जुड़ी वीडियो, तस्वीरें और ऐसी दूसरी सामग्री जो इंटरनेट पर मौजूद है। इस कांफ़्रेंस में जुड़ी भीड़ सरकारी तंत्र की ही थी, बहुत सारे क़ानून पहले ही बने हुए हैं, बहुत सारे मंत्रियों के नाम बलात्कार जैसे अपराधों में जुड़े होते हैं। इस कांफ़्रेंस से तो कोई उम्मीद नहीं रखी जानी चाहिए। लेकिन यह मुद्दा लोगों का है, इस देश के बच्चों का है, यह एक गंभीर मामला है।

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महाराष्ट्र की स्वास्थ्य व्यवस्था की पोल खोलती नांदेड़ अस्पताल में हुईं मौतें

18“अब मैं अपनी पत्नी नगमा को क्या जवाब दूँगा, वह यह सुनकर टूट जाएगी, मेरे बच्चे की मौत की ज़िम्मेदार सरकार है।”

ये शब्द अज़ीम खान के हैं, जो अपने तीन दिन के नवजात बच्चे को नांदेड़ अस्पताल लेकर आया था, लेकिन डॉक्टरों ने उसे बताया कि सीजेरियन ऑपरेशन के दौरान बच्चे ने गंदा पानी पी लिया और उसकी हालत नाज़ुक हो गई और अब उसे वेंटि‍लेटर की ज़रूरत है। लेकिन डॉक्टरों की लापरवाही, दवाइयों और स्वास्थ्य मुलाज़मों की कमी के कारण उसके नवजात बच्चे की मौत हो गई। उसने बताया कि वह परभणी ज़िले से 80 किलोमीटर का सफ़र करके अपने बच्चे की ज़िंदगी के लिए नांदेड़ आया था। लेकिन इस अस्पताल ने उसके बच्चे की ज़िंदगी छीन ली।

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बिना संगठन के क़ानूनी अधिकारों से भी वंचित मज़दूर

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मज़दूरों ने इतिहास में लंबे संघर्षों से अपने लिए अनेकों अधिकार जीते हैं और इन अधिकारों को क़ानूनी रूप में मान्यता दिलवाई है, चाहे वो काम के घंटे तय करने का अधिकार हो, चाहे न्यूनतम वेतन का और या बोनस, ग्रेच्युटी, पैंशन आदि जैसे भत्तों का अधिकार हो। लेकिन मज़दूर लहर के बिखराव से पूँजीवादी मालिकों और इनकी चाकर सरकारों को इन अधिकारों को छीनने का खुला मौक़ा दे दिया है। हालात आज ऐसे बने हुए हैं कि क़ानूनी तौर पर प्रमाणित अधिकार लेने के लिए भी मज़दूरों को दर-दर के धक्के खाने के लिए मज़बूर किया जा रहा है। मज़दूरों को कैसे अपने जायज़, क़ानूनी अधिकारों से भी वंचित किया जाता है, इसकी दो मिसालें पिछले दिनों मज़दूरों के बीच प्रचार के दौरान देखीं।

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भाजपा सरकार में पूँजीपतियों की ऐश, ना चुकाने योग्य क़र्ज़ में प्रतिदिन 100 करोड़ का इज़ाफ़ा

debtइसी साल जुलाई महीने में मोदी ने अपने एक भाषण में कहा था कि उसकी सरकार में सरकारी बैंकों की हालत में काफ़ी सुधार हुआ है। मोदी ने कहा कि कांग्रेस के राज के दौरान कुछ ख़ास और ताक़तवर लोगों को सिर्फ़ एक फ़ोन करके क़र्ज़ मिल जाते थे, जिसके चलते सरकारी बैंक घाटे में चलते थे और भाजपा की सरकार बनने के बाद अब सरकारी बैंकों की व्यवस्था में बहुत सुधार हुआ है। अब यह तो पता लग चुका है कि झूठ बोलने में मोदी का कोई मुक़ाबला नहीं। यह भाषण भी खोखली जुमलेबाज़ी के अलावा और कुछ भी नहीं था। उल्टा सच तो यह है कि मोदी के राज में सरकारी बैंकों की हालत बद से बदतर हो गई है। एक रिपोर्ट के अनुसार साल 2019 से ना-वापसी वाले क़र्ज़ हर दिन 100 करोड़ रुपए की रफ़्तार से बढ़े हैं। अगर साल 2019 से लेकर अब तक देखा जाए तो इस रक़म में 1.2 लाख करोड़ रुपए का इज़ाफ़ा हुआ है। इस रक़म का बड़ा हिस्सा (77.5%) सरकारी बैंकों से लिए गए क़र्ज़ का बनता है। ये ऐसे क़र्ज़ हैं, जो पूँजीपतियों ने चुकाने की क्षमता होने के बावजूद भी वापिस नहीं किए हैं। इसके बाद भी मोदी सरकार ने इन पर कोई ख़ास कार्रवाई नहीं की। यह रक़म इससे ज़्यादा भी हो सकती है, क्योंकि इस रिपोर्ट के आने तक एक सरकारी बैंक ने अपने ना-वापस किए गए क़र्ज़ की जानकारी को साझा नहीं किया था। इन तथ्यों से यह स्पष्ट रूप में देखा जा सकता है कि कैसे मोदी सरकार जनता के पैसे को अपने मालिक पूँजीपतियों को लुटा रही है। 

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औरत-मर्द की “बराबरी” वाली पूँजीवादी व्यवस्था में औरतों के साथ होता काम-आधारित भेदभाव

20नवंबर में ‘अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन’ द्वारा एक रिपोर्ट पेश की गई, जिसमें विश्व श्रम शक्ति में लैंगिक असमानता और अलग-अलग क्षेत्रों में काम कर रही औरतों की समीक्षा की गई है। इस रिपोर्ट से यह और भी स्पष्ट होता है कि “बराबरी” के नारे से विश्व स्तर पर स्थापित हुई पूँजीवादी ढाँचे में आज हर कार्य क्षेत्र में कैसे औरतों के साथ भेदभाव होता है।

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मार्शल मशीन्स लिमिटेड के मज़दूरों का संघर्ष जारी

Marshal Machinesलुधियाणा के फ़ाेकल प्वाइंट स्थित सी.एन.सी. टर्निंग मशीनें बनाने वाली कंपनी मार्शल मशीन्स लिमिटेड में मज़दूर 9 नवंबर से हड़ताल पर हैं, जो रिपोर्ट लिखे जाने तक जारी है। हड़ताल का कारण यह है कि मालिकों ने फ़ैक्टरी में मज़दूरों की यूनियन के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, खज़ानची, प्रेस सचिव और एक जुझारू सदस्य को काम से निकाल दिया है। संघर्षरत मज़दूरों की माँग है कि बदलाखोरी के लिए काम से निकाले गए इन नेताओं को नौकरी पर बहाल किया जाए। इसके साथ ही माँग है कि पिछले 7 महीनों से रोकी गई वेतन बढ़ौतरी लागू की जाए, बोनस दिया जाए, पक्की हाज़िरी लगाई जाए और अन्य मसले हल किए जाएँ।

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सरकारी बैंकों का निजीकरण: भारत में अच्छे-सुरक्षित रोज़गार का सिकुड़ता दायरा

21निर्मला सीतारमण ने 2022 के वित्तीय साल का बजट पेश करते हुए कहा था कि भारतीय अर्थव्यवस्था का एक हिस्सा 1991 मार्का सुधारों से अछूता है, वह है सरकारी यानी सार्वजनिक बैंकिंग क्षेत्र, और इसी बजट भाषण में वित्तमंत्री ने सार्वजनिक क्षेत्र के दो बैंकों का निजीकरण करने का ऐलान किया था। इस‌के लिए बहाने सरकारी बैंकों के ख़राब प्रदर्शन के बनाए जाते हैं। इस ख़राब प्रदर्शन के लिए सरकार कैसे ज़िम्मेदार है, इस बात पर ना तो निर्मला सीतारमन ने कुछ कहा और ना ही भाजपा की यूनियन सरकार का कोई आधिकारिक वक्ता ही इस मुद्दे पर कोई बात करता है। बस सरकारी बैंकों के ख़राब प्रदर्शन की रट लगाकर इनके निजीकरण की ओर लगातार क़दम बढ़ाए जा रहे हैं।

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केवल सामाजिक व्यवहार ही सच्चाई की कसौटी हो सकता है – कॉमरेड माओ त्से-तुङ

Mao

जन्म: 26 दिसंबर 1893

मृत्यु: 9 सितंबर 1976

(26 दिसंबर को विश्व मज़दूर वर्ग के महान शिक्षक और नेता, मज़दूर वर्ग के नेतृत्व में चीन की महान क्रांति के नेता कॉमरेड माओ त्सेतुङ का जन्मदिन है। इस अवसर पर हम यहाँ उनके दो लेखों – ‘व्यवहार के बारे मेंऔरपार्टी कार्यशैली में सुधार करोके अंश पेश कर रहे हैं।संपादक)

मार्क्स से पहले का भौतिकवाद, मनुष्य की सामाजिक प्रकृति से अलग रहकर, उसके ऐतिहासिक विकास से अलग रहकर ज्ञान की समस्या को परखता था, और इसलिए सामाजिक व्यवहार पर, यानी उत्पादन और वर्ग-संघर्ष पर ज्ञान की निर्भरता को वह नहीं समझ पाता था।

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बेरोज़गारी पर पर्दा डालते सरकारी आँकड़े

Screenshot 2023-12-13 14305412 अक्टूबर 2023 को प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में कहा कि “भारत की फैल रही अर्थव्यवस्था नौजवानों के लिए नए मौक़े लेकर आ रही है और इसकी बदौलत बेरोज़गारी की दर छह सालों में सबसे कम है।” सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक़ जुलाई 2022 से लेकर जून 2023 तक बेरोज़गारी दर 3.2% रही, जो पहले से कम है। और अब भाजपा सरकार इन आँकड़ों का आने वाले चुनाव में पूरा फ़ायदा लेना चाहेगी। इस रिपोर्ट का प्रचार करने का यही मक़सद है, वरना 2017-18 की बेरोज़गारी संबंधित रिपोर्ट, जिसमें बेरोज़गारी बढ़ी हुई आई थी, 2019 के चुनाव से पहले बाहर नहीं आने दी थी। 

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मक्सिम गोर्की का उपन्यास: ‘वे तीन’ (पुस्तक परिचय)

25गोर्की को एक महान लेखक और समाजवादी यथार्थवाद के प्रणेता के रूप में जाना जाता है। मक्सिम गोर्की (1869-1936) साहित्य के पहले लेखक थे जिन्होंने मज़दूर वर्ग की युगप्रवर्तक शक्ति को स्पष्ट रूप से पहचाना, उसके भीतर छिपे मानवता के उज्ज्वल भविष्य को देखा। उनका लेखन मानवता और जीवन के प्रति उनके प्रेम से ओत-प्रोत है। मज़दूरों के जीवन, उनके प्रेम, उनकी नफ़रत आदि को गोर्की ने साहित्य के पन्नों पर उतारा। गोर्की बचपन से ही उत्पीड़ित मज़दूर वर्ग के संपर्क में रहे हैं। वे एक मज़दूर के रूप में बड़े हुए और घरेलू काम से लेकर बेकरी, कारख़ानों, जहाज़ों और खेतों आदि में विभिन्न प्रकार की नौकरियों में काम किया। ये अनुभव उनकी साहित्यिक कृतियों का आधार बने। साहित्यिक रचनाओं में उन्होंने रूसी जीवन की सच्चाई का यथार्थवादी चित्रण किसी व्यक्ति के रूप में नहीं किया, बल्कि उन परिस्थितियों को बदलने के लिए एक प्रेरणा स्रोत के रूप में किया।

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चुनाव बांड योजना – राजनीतिक पार्टियों द्वारा मोटे चंदे डकारने का हथकंडा

6लोकसभा चुनाव के नज़दीक आने से चुनाव बांडों का मसला एक बार फिर से चर्चा में है। चुनाव बांड की योजना, जो मोदी की भाजपा सरकार द्वारा जनवरी 2018 में राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाले मोटे चंदों में “पारदर्शिता” लाने के बहाने लाई गई थी, उसने चुनाव चंदों की प्रक्रिया को और ज़्यादा धुँधला कर दिया है। राजनीतिक पार्टियों, ख़ासतौर पर भाजपा के लिए यह योजना तब से लेकर अभी तक पूँजीपतियों द्वारा दिए गए “गुप्त” और मोटे चंदों को डकारने का हथकंडा ही साबित हुई है। चूँकि चुनाव बांडों के मुताबिक़ कोई भी व्यक्ति, कंपनी या समूह किसी भी राजनीतिक पार्टी को चुनाव बांड ख़रीदकर दे सकता है और उसकी आर्थिक मदद कर सकता है। इस योजना के तहत बांड ख़रीदने वाले व्यक्ति, कंपनी या समूह और दान लेने वाली राजनीतिक पार्टी का नाम गुप्त रखा जाता है। इस योजना को लेकर पहले से ही कई ऐतराज़ और शक जताए गए थे, जोकि समय ने सही साबित किए हैं कि इससे वोट प्रक्रिया में भ्रष्टाचार और बढ़ेगा और धन्नासेठों के काले धन को सफ़ेद करने के लिए ही रास्ता निकाला होगा। इस योजना के अधीन राजनीतिक पार्टियाँ अभी तक 12,000 करोड़ रुपए के चंदे हासिल कर चुकी हैं। जिसमें 95 प्रतिशत से ज़्यादा चंदा सिर्फ़ भाजपा की झोली में आया है। इस चुनाव बांड की योजना पर भाजपा ने रिज़र्व बैंक, चुनाव आयोग समेत अन्य संगठनों के ऐतराज़ों को दरकिनार करते हुए अपनी झोलियाँ भरी हैं।

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मेहनतकशों को राहत देने की बजाय, हथियारों और साम्राज्यवादी युद्धों को पहल दे रहा है अमेरिकी साम्राज्यवाद

2-2दुनिया के सबसे बड़े साम्राज्यवादी मुल्क़ संयुक्त राज्य अमेरिका (आगे सिर्फ़ अमेरिका) को पश्चिमपरस्त (मुख्य तौर पर ख़ुद अमेरिकी) मीडिया में दुनिया का मसीहा और सबसे पुराने लोकतंत्र के तौर पर पेश किया जाता है। परंतु ऐसी पेशकारी अमेरिकी साम्राज्यवाद के कुकर्मों पर पूरी दुनिया में इसके द्वारा फैलाई गई दहशत पर पर्दा डाल देती है। अमेरिका का ‘शांति और लोकतंत्र’ के झंडाबरदार होने का दावा आज दुनिया के सामने नंगा हो चुका है। इसकी ताज़ा मिसाल इज़रायली हुकूमत द्वारा फ़ि‍लिस्तीनियों पर किए जा रहे जबर-जुल्म के दौरान भी देखने को मिली है। एक तरफ़ अमेरिका की ओर से गाज़ा पट्टी में युद्धबंदी की अपीलें करने का मीडिया स्टंट खेला जा रहा है और दूसरी तरफ़ इसकी ओर से इज़रायल को हथियार और दूसरा जंगी सामान भेजा जा रहा है। फ़ि‍लिस्तीनी लोगों पर इज़रायली हुकूमत की ओर से थोपी गई जंग के बाद अमेरिकी हथियार कंपनियों के शेयरों की क़ीमत में तेज़ उछाल आया, बिल्कुल उसी तरह जैसे यूक्रेन युद्ध के समय देखा गया था। इस तथ्य ने अमेरिका  की अर्थव्यवस्था में हथियार उद्योग की अहमीयत और मौजूदा पूँजीवादी ढाँचे के मानव विरोधी होने की सच्चाई को पूरी तरह उघाड़कर रख दिया है।

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फ़िलिस्तीन के मुक्ति संघर्ष के समर्थन में पूरी दुनिया के लोग

Palestineइज़रायल द्वारा फ़ि‍लिस्तीनियों का क़त्लेआम किया जा रहा है। इज़रायल के फ़िलिस्तीन पर हमले के पहले तीस दिनों में ही हवाई हमलों और गाज़ा पट्टी में दाख़िल होकर 11 हज़ार से ज़्यादा फ़ि‍लिस्तीनियों का क़त्लेआम किया गया है जिनमें 45 सौ से ज़्यादा बच्चे हैं। इन 30 दिनों में 27 हज़ार से ज़्यादा फ़ि‍लिस्तीनी ज़ख़्मी हुए हैं, जिनमें से ज़्यादातर को इलाज की सुविधा नहीं मिल रही। इज़रायल द्वारा मचाई गई तबाही के कारण गाज़ा की कुल 23 लाख आबादी में से 70 फ़ीसदी आबादी प्रवास कर चुकी है। गाज़ा पट्टी की ऐसी कोई जगह नहीं बची, जहाँ इज़रायल द्वारा बम ना फेंका गया हो। हवाई हमले द्वारा तबाही मचाने के बाद अब इज़रायली सेना गाज़ा में दाख़िल हो चुकी है। अस्पतालों की घेराबंदी कर हमले कर रही है, जिस कारण नवजात बच्चे अपनी जान गँवा रहे हैं। गाज़ा पट्टी में पानी, खाने वाली वस्तुओं, तेल आदि की बड़ी किल्लत है। दवाइयों की कमी के कारण बड़े अस्पतालों ने ज़ख़्मियों को भर्ती करना बंद कर दिया है।

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बंगलादेश में कपड़ा मज़दूरों की हड़ताल

Bangladeshपिछले कुछ समय में विश्व स्तर पर हो रही घटनाएँ उन पूँजीवादी बुद्धिजीवियों का मुँह चिड़ाती नज़र आती हैं, जिन्होंने किसी समय घोषणा कर दी थी कि अर्थव्यवस्था में आधुनिक तब्दीलियों के कारण अब मज़दूरों के वर्ग संघर्ष होने का कोई आधार नहीं रहा और इतिहास का अंत हो चुका है। पिछले दशक के अंत और ख़ासतौर पर कोरोना लॉकडाऊन काल के बाद दुनिया के कई देशों, विकसित पूँजीवादी देशों समेत, में मज़दूर वर्ग अपने अधिकारों के लिए फिर से संघर्षों के अखाड़े में उतरा है, जिनमें से सबसे प्रमुख उदाहरण फ़्रांस और ब्रिटेन के मज़दूरों के संघर्षों का है।

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मनरेगा योजना को ख़त्म करके ग्रामीण मज़दूरों से नाममात्र का रोज़गार भी छीन रही है मोदी हुकूमत

50भाजपा सरकार ग्रामीण क्षेत्र के मज़दूरों के लिए साल के 100 दिन काम की गारंटी वाली योजना मनरेगा (महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी एक्ट) को तरह-तरह के हथकंडों से ख़त्म करने की तैयारी में है। साल 2020-21 के बजट 1,11,500 करोड़ रुपए के मुक़ाबले साल 2023-24 का बजट 60,000 करोड़ रुपए ही है। दो सालों में ही बजट में करीब 48 प्रतिशत कटौती कर दी गई है। इस साल के बजट की राशि का 93 प्रतिशत पहले छह महीनों में ही ख़र्च हो गया है। इसी साल भाजपा मनरेगा से संबंधित दो संशोधन लेकर आई है। पहला कि मनरेगा मज़दूरों की हाज़िरी एन.एम.एम.एस. (नैशनल मोबाइल मोनिटरिंग सिस्टम) के ज़रिए लगेगी। यह एक मोबाइल ऐप है, जिसमें काम की जगह पर सुबह 9 से 11 के बीच ऑनलाइन हाज़िरी लगती है।

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मेहनतकश जनता की मुक्ति को समर्पित डॉक्टर नॉर्मन बैथ्‍यून की गाथा

5 (4)“स्वास्थ्य सुविधाओं की अर्थव्यवस्था की समस्या विश्व अर्थव्यवस्था की समस्या का एक हिस्सा है और इससे कटी हुई या अलग नहीं है। दवाइयों का जो चलन हम देख रहे हैं, एक अय्याश व्यापार है। हम ज़ेवरों की कीमत पर रोटी बेच रहे हैं। ग़रीब, जो कि हमारी आबादी का 50% हिस्सा हैं, भुगतान नहीं कर सकते, और भूखे मर रहे हैं… दवाइयों का समाजीकरण करना और डॉक्टरी की व्यक्तिगत प्रेक्टिस को रोकना या ख़त्म करना ही इस समस्या का एकमात्र हल होगा। आइए, हम मुनाफ़े को, व्यक्तिगत आर्थिक मुनाफ़े को, दवाइयों से बाहर निकालें, और अपने पेशे को लालची व्यक्तिवाद से मुक्त करें… अपने जैसी जनता के दुखों की कीमत पर अपने आप को अमीर बनाने को अपमानजनक करार दें। …आइए जनता को यह ना कहें कि “तुम्हारे पास कितना पैसा है?” बल्कि यह कहें कि “हम बेहतर तरीक़े से आपकी सेवा कैसे कर सकते हैं?” हमारा नारा होना चाहिए है, “हम आपको सेहतमंद बनाने के पेशे में हैं।”

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सनातन पर बहस, पूँजीवादी वैचारिक वर्चस्व और फ़ाशीवाद का ख़तरा

1इन दिनों सनातन के नाम पर पूरे मुल्क़ में बहस छिड़ी हुई है। सितंबर की शुरुआत में तमिलनाडु के लेखकों और कलाकारों के एक सम्मेलन में, उदयनिधि स्टालिन एक बयान देता है कि सनातन एक बीमारी है, मलेरिया, डेंगू और कोरोना वायरस की तरह। बीमारी का विरोध नहीं किया जाता, बल्कि इसे ख़त्म करना ज़रूरी होता है। वह सनातन को जड़ से ख़त्म करने का आह्वान करता है। उदयनिधि स्टालिन तमिलनाडु की सरकार में मंत्री है और वहाँ के मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन का बेटा है। दलित राजनीति से जुड़ी राजनीतिक पार्टियों के कुछ नेता उदयनिधि का समर्थन करते नज़र आए हैं, जिसमें कांग्रेस के अध्यक्ष खड़गे का बेटा भी है। एक कट्टर हिंदू संस्था का अध्यक्ष, उदयनिधि का सिर कलम करके लाने वालों को 10 करोड़ के इनाम का ऐलान करता है। दूसरी ओर भाजपा नए बने विरोधी संगठन इंडिया पर हल्ला बोल देताी है। पर कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस और आम आदमी पार्टी खुद को इस बयान से अलग कर लेते हैं। आए दिन देश में नफ़रती भाषण देने वालों को बढ़ावा देने वाला गृहमंत्री अमित शाह इस बयान को नफ़रती बयान बताता है और कहता है कि यह ब्यान संस्कृति और धर्म की बुनियाद पर हमला है। भाजपा आई.टी. सेल का मुखी अमित मालवीय कहता है कि स्टालिन ने 80 करोड़ हिंदुओं के नरसंहार का आह्वान किया है। प्रधानमंत्री का बयान आता है कि सनातन का विरोध करने वालों के ख़िलाफ़ कमर कस लो। इस तरह हक़ और विरोध में बयानों का एक सिलसिला चलता है। उदयनिधि ने सफ़ाई देते हुए कहा कि मैं अपने बयान पर कायम हूँ, मैं सिर्फ़ हिंदू धर्म के बारे में ही नहीं कह रहा, बल्कि जातिवाद और ग़ैर-बराबरी का समर्थन करने वाले सभी धर्मों के ख़िलाफ़ हूँ। उसने कहा कि सनातन धर्म एक सिद्धांत है, जो लोगों को जाति और धर्म के नाम पर बाँटता है।

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भारत के पूँजीपतियों की धन-दौलत में बड़ा इज़ाफ़ा और मेहनतकश जनता के लगातार बिगड़ते हालात : पूँजीवादी व्यवस्था को ख़त्म किए बिना अमीरी-ग़रीबी की खाई और जनता की ग़रीबी-बदहाली का ख़ात्मा संभव नहीं • संपादकीय

अमीरी-ग़रीबी की खाई का लगातार गहरा और चौड़ा होते जाना निजी संपत्ति और मुनाफ़े पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था का लाजिमी लक्षण है। एक तरफ़ मुट्ठीभर पूँजीपतियों के पास धन-दौलत का अंबार लगातार बढ़ता जाता है और दूसरी तरफ़ मज़दूरों-मेहनतकशों की ग़रीबी-बदहाली बढ़ती जाती है। पूँजीवादी व्यवस्था के कारण भारत में भी यही हो रहा है।

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क्रिकेट की चमक के पीछे छिपा खेल उद्योग के मज़दूरों का शोषण!

आजकल भारत में आई.सी.सी. का क्रिकेट विश्व कप चल रहा है। मीडिया से लेकर फ़ि‍ल्मी कलाकारों तक सबको इसकी खुमारी चढ़ी हुई है। एक अनुमान के मुताबिक़ इस विश्व कप के प्रसारण के दौरान इश्तिहार लगवाने की लागत 3600 डॉलर प्रति सेकंड है। विश्व कप की इनामी राशि 40 लाख डॉलर है। पूँजीवादी अर्थशास्त्रियों के अनुमान के मुताबिक़ यह टूर्नामेंट भारत की अर्थव्यवस्था में 22,000 करोड़ रुपए जोड़ेगा। क्रिकेट भारत में सबसे मशहूर खेलों में से एक है। जिससे भारत में क्रिकेट चलाने वाली संस्था बी.सी.सी.आई. ने साल 2018 से 2022 में 27000 करोड़ की कमाई की। पर क्या आप जानते हैं कि भारत में खेले जाने वाले क्रिकेट मैचों के दौरान इस्तेमाल की जाने वाली गेंद बनाने वाले मज़दूर किस तरह के हालातों में अपनी ज़िंदगी जीते हैं? ये मज़दूर बहुत कम वेतन पर, बहुत बुरे हालातों में यह गेंद बनाते हैं। इन मज़दूरों की ज़िंदगी की यह त्रासदी है कि क्रिकेट जैसे अमीर खेलों में इस्तेमाल होने वाला सामान बनाने के बावजूद भी इनकी ग़रीबी दूर नहीं होती। मेरठ में क्रिकेट गेंद बनाने वाले एक मज़दूर का कहना है: “कोई भी जीते हमें क्या फ़र्क़ पड़ता है, खेल का असली कारीगर तो खिलाड़ी को ही समझा जाता है।” इससे बड़ी त्रासदी और क्या होगी कि दिन-रात मेहनत करके क्रिकेट गेंद बनाने वाले मज़दूरों को यह मैच देखने का भी समय नहीं मिलता!

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मनरेगा योजना के खात्मे की लगातार हो रही कोशिशें

इस साल के “आज़ादी” दिवस पर भारत सरकार ने मध्य प्रदेश से बस्तियाँ बानो को “सम्मानित” करने के लिए दिल्ली बुलाया था। बस्तियाँ बानो एक मज़दूर औरत है जो मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा ज़िले की रहने वाली है, उसने गाँव में मनरेगा काम के दौरान 95 दिन काम किया था। इससे ख़ुश होकर मोदी सरकार ने उसे इतना बढ़ा ईनाम दिया है। उसे लाल क़ि‍ले से मोदी का भाषण सुनने के लिए दिल्ली बुलाया गया। मोदी सरकार ऐसे ढोंग रचकर जनता को बेवक़ूफ़ बनाना चाहती है। लेकिन मनरेगा मज़दूर जो साल के शुरू में 100 दिन का दिल्ली जंतर मंतर पर धरना-प्रदर्शन करके गए, सरकार द्वारा ना तो उनके बारे में कोई बात की गई और ना उनका कोई मसला ही हल किया गया है। वास्तव में मनरेगा मज़दूर साल के शुरू से ही भारत सरकार की मनरेगा योजना के संबंध में दो नीतियों, एक मनरेगा मज़दूरों की हाज़िरी और एक मनरेगा मज़दूरों के वेतन के भुगतान के संबंध में किए गए बदलाव के विरोध में रोष जता रहे हैं।

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एक कैंटीन मज़दूर से बातचीत

आज की इस लुटेरी व्यवस्था में चीज़ों की चमक-धमक के पीछे मनुष्य की मेहनत कैसे नज़रअंदाज हो जाती है और कैसे गायब हो जाती है, इसकी एक मिसाल पिछले दिनों देखने को मिली, जब एक कैंटीन मज़दूर से बातचीत हुई। अक्सर हम काॅलजों, होस्टलों की कैंटीनों पर कैंटीनी गपशप की बातें तो सुनते रहे हैं, लेकिन इन कैंटीनों पर काम करने वाले लोगों की ज़िंदगी कितनी खराब और उदासीन होती है, इसके बारे में चर्चा नहीं होती।

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मोदी सरकार द्वारा न्यूज़क्लिक की जुबानबंदी की घटिया कोशिश

बीती 3 अक्टूबर को भारत सरकार के ग्रह मंत्रालय के निर्देशों के तहत दिल्ली पुलिस द्वारा ख़बरों के वेब पोर्टल ‘न्यूज़क्लिक’ से जुड़े पत्रकारों, काम करने वाले स्टाफ़, संपादक आदि के घरों पर छापे मारे गए। न्यूज़क्लिक का दिल्ली स्थित दफ़्तर सील कर दिया गया और उसके संपादक परबीर और प्रशासनिक अफ़सर अमित को हिरासत में ले लिया गया। न्यूज़क्लिक के दफ़्तर के मुलाजिमों के लैपटॉप, फ़ोन, अन्य डिजिटल डेटा, डेटा की हर प्रकार की नक़लें, नक़दी रसीदें आदि जब्त कर लिए गए हैं। इस पूरी प्रक्रिया के दौरान न्यूज़क्लिक के मुताबिक़ ना तो दिल्ली पुलिस द्वारा उन्हें एफ़.आई.आर. की कोई नक़ल दी गई, ना ही दिल्ली पुलिस ने इन सारे छापों के समय क़ानूनी प्रक्रिया का ही कोई पालन किया। सूत्रों के मुताबिक़ न्यूज़क्लिक पर जो छापे मारे गए हैं और संपादक और प्रशासनिक अफ़सर को गिरफ़्तार किया गया है, यह कोई छोटी-मोटी धारा लगाकर नहीं, बल्कि पुलिस द्वारा इन पर ग़ैर-क़ानूनी गतिविधियाँ रोकने का क़ानून (यू.ए.पी.ए.) थोपा गया है। इस काले क़ानून का इस्तेमाल मोदी सरकार द्वारा 2014 से भारत की सत्ता पर काबिज़ होने के बाद लगातार बढ़ाया गया है, जिसके ज़रिए ना केवल कश्मीर, उत्तर पूर्व में जनता के सही संघर्षों को ही दबाया जा रहा है, बल्कि मोदी सरकार द्वारा हर प्रकार की जनपक्षधर और सरकार विरोधी आवाज़ को भी दबाने की कोशिश की जा रही है।

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गाज़ा से एक चिट्ठी – ग़सान कानाफ़ानी

प्यारे मुस्तफ़ा,

                मुझे तुम्हारी चिट्ठी मिली। इसके मुताबिक़ तुमने मुझे अपने पास सैकरामैंटो बुलाने संबंधी ज़रूरी व्यवस्था कर ली है। ताज़ा समाचार यह है कि मुझे कैलिफ़ोर्निया यूनिवर्सिटी के सिवि‍ल इंजीनियरिंग विभाग के लिए चुन लिया गया है। मेरे दोस्त, इन अहसानों के लिए मुझे लाजिमी ही तुम्हारा शुक्रिया अदा करना चाहिए। पर तुम्हें यह सुनकर बड़ा अजीब लगेगा, और इसमें कोई शक भी नहीं। बिना किसी हिचकचाहट कहना हो, तो मैं कहूँगा कि मुझे इससे पहले सब बातें इतनी स्पष्ट कभी नहीं दिखीं। मेरे दोस्त मैंने अपना इरादा बदल लिया है। मैं तुम्हारे पीछे उस धरती पर नहीं आऊँगा, जहाँ तुम्हारे बताए मुताबिक़ हरियाली है, पानी है और ख़ूबसूरत चेहरे हैं। मैं जहाँ हूँ, वह जगह कभी भी नहीं छोड़ूँगा।

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