सकल घरेलू उत्पादन के नए आँकड़े और ज़मीनी हक़ीक़तें

Screenshot 2024-04-06 220918फ़रवरी महीने के अंत में भारत सरकार के राष्ट्रीय आँकड़ा दफ़्तर द्वारा भारत के ‘सकल घरेलू उत्पादन’ संबंधी नए आँकड़े जारी किए गए। इन आँकड़ों के मुताबिक़ अक्टूबर-दिसंबर तिमाही के दौरान सकल घरेलू उत्पादन 8.4% की दर से आगे बढ़ा है और पूरे 2023-24 वित्तीय वर्ष में इसके 7.6 प्रतिशत रहने का अनुमान है। भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर का कहना है कि ये आँकड़े  8 प्रतिशत तक भी पहुँच सकते हैं। 2024 के लोकसभा चुनाव में इन आँकड़ों को मोदी सरकार अपनी उपलब्धि के तौर पर प्रचारित कर रही है। लेकिन इन आँकड़ों के ऐसे अहम पक्ष भी हैं, जिन्हें गोदी मीडिया द्वारा नहीं दिखाया जा रहा। आज हम इन्हीं पहलुओं के बारे में बात करेंगे।

पहली बात यह है कि सकल घरेलू उत्पादन के आँकड़ों के साथ निजी खपत के आँकड़ों को नहीं प्रचारित किया जा रहा, जो इनसे अलग आए हैं। आर्थिक विशेषज्ञों का कहना है कि आम हालात में सकल घरेलू उत्पादन के आँकड़े और वस्तुओं और सेवाओं की खपत लगभग बराबर रहती हैं। या वो 0.5 से लेकर 1 फ़ीसदी तक कम होती है। लेकिन दिसंबर तिमाही के आँकड़ों की दरों में बहुत बड़ा अंतर है। आम परिवारों की खपत वहीं खड़ी है। ग्रामीण क्षेत्र में भी वस्तुओं की खपत में कोई इज़ाफ़ा दर्ज नहीं किया गया। अधिकृत आँकड़े  कहते हैं कि खपत दर सिर्फ़ 3 प्रतिशत ही है। ‘राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय’ ने भी वस्तुओं और सेवाओं की खपत दर को 3 प्रतिशत ही बताया है। इसका मतलब यह है कि सकल घरेलू उत्पादन के बढ़ने से आम लोगों की खपत पर कोई ज़्यादा असर नहीं पड़ा यानी सकल घरेलू उत्पादन की तथाकथित ख़ुशहाली आम लोगों द्वारा ख़रीदी जा रही वस्तुओं की ज़्यादा बिक्री के रूप में कहीं नज़र नहीं आ रही। हाँ, ऊपर के कुछ प्रतिशत लोग हैं, जो ऐशो-आराम की महँगी वस्तुओं पर दिल खोलकर ख़र्च कर रहे हैं।

दूसरा, कई आर्थिक विशेषज्ञ सकल घरेलू उत्पादन के बिना सकल मूल्य संवर्धन को अर्थव्यवस्था को मापने का अहम पैमाना मानते हैं। ‘सकल मूल्य संवर्धन’ देश में पैदा हुई कुल वस्तुओं और सेवाओं को गिना जाता है, पर इसमें टैक्स और सब्सिडियों को छोड़ दिया जाता है। इस बार दोनों के बीच अंतर पिछले दस सालों में सबसे ज़्यादा है। इस तिमाही में अप्रत्यक्ष कर में (यानी आम लोगों पर बढ़ते टैक्स का बोझ) 32 प्रतिशत इज़ाफ़ा होने के कारण सकल घरेलू उत्पादन और सकल मूल्य संवर्धन में बड़ा अंतर आया है। इसका मतलब है कि भारत की अर्थव्यवस्था की रफ़्तार सुस्त पड़ रही है, लेकिन प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष करों द्वारा सरकार की कमाई बढ़ गई है। पिछले समय में बड़े पूँजीपतियों द्वारा लागत कम होने के बावजूद उत्पादों की क़ीमतें नहीं घटाई गईं, जिससे उन्हें ज़्यादा मुनाफ़े हुए और इसका एक हिस्सा उन्होंने टैक्स के रूप में सरकार को अदा किया, जो सकल घरेलू उत्पादन के इज़ाफ़े में भी नज़र आया। “प्रत्यक्ष टैक्स के केंद्रीय बोर्ड” के मुताबिक़ सरकार को प्राप्त होने वाले ‘प्रत्यक्ष करों’ में 20.25 प्रतिशत इज़ाफ़ा हुआ है, जिसमें कारपोरेट आमदनी टैक्स और निजी आमदनी टैक्स का काफ़ी हिस्सा है। इस तरह बढ़ी हुई टैक्स कमाई भी इन आँकड़ों में इज़ाफ़े के तौर में नज़र आई है। 

तीसरा, अगर हम बाक़ी भारतीय अर्थव्यवस्था की बात करें, तो यहाँ भी ज़्यादा उत्साहित होने वाली बात नहीं। खेती-बाड़ी क्षेत्र की इज़ाफ़ा दर इस तिमाही में सिर्फ़ 0.8% रही है, जो पिछले 4 सालों के हिसाब से सबसे निचले स्तर पर है। इसी तरह भारत के आठ बुनियादी उद्योगों की रफ़्तार भी धीमी है और इनमें इज़ाफ़ा दर सिर्फ़ 3.6 प्रतिशत है यानी सकल घरेलू उत्पादन का आधा ही।

चौथा, भारत में सकल घरेलू उत्पादन के इज़ाफ़े के पीछे अहम कारण सरकार के ख़र्चों में हुआ इज़ाफ़ा भी है, जिसकी चर्चा बहुत कम हुई है। भारत सरकार ने सड़कों, पुलों और बंदरगाहों पर यानी बुनियादी ढाँचा निर्माण पर बड़े स्तर पर ख़र्च किया है। भारत सरकार का पूँजी ख़र्च 2019-20 में 12.5 प्रतिशत से लेकर 2023-24 में 23.3 प्रतिशत हो गया है। पूँजी ख़र्च 2014-15 के मुक़ाबले 2023-24 में 4.5 गुना बढ़ा है। जबकि इसके उलट निजी क्षेत्र में नए निवेश के लिए उत्साह धीमा पड़ रहा है। यानी मोदी सरकार सरकारी ख़र्च द्वारा अर्थव्यवस्था को उत्साह देने की जी-तोड़ कोशिश कर रही है, लेकिन इसका दूसरा असर देश पर लगातार क़र्ज़ के बढ़ने में दिख रहा है। 2014 में भारत पर क़र्ज़ सकल घरेलू उत्पादन का 67 प्रतिशत था, जो दस सालों में बढ़कर लगभग 90 प्रतिशत हो चुका है और आने वाले समय में इसके 100 प्रतिशत होने की उम्मीद है। आर्थिक विशेषज्ञों के मुताबिक़ किसी भी देश का क़र्ज़ उसके घरेलू उत्पादन के 60 प्रतिशत से ज़्यादा नहीं होना चाहिए, यानी भारत पर क़र्ज़ ख़तरे के घेरे में आ चुका है। लेकिन भारत सरकार अब इसका बोझ भी आम लोगों पर डालने की तैयारी कर रही है। क़र्ज़ घटाने के नाम पर सरकार सरकारी ख़र्च में आम लोगों को मिलने वाली सब्सिडियों या अन्य सरकारी सुविधाओं में और बड़े कट लगाएगी। लेकिन दूसरी ओर कोरोना लॉकडाउन के बाद बढ़े पूँजीपतियों के मुनाफ़ों पर ना कोई टैक्स बढ़ाया जाएगा और ना ही कोई नया टैक्स लगाया जाएगा। इससे आम लोगों की मुश्किलें और बढ़ेंगी। अब भी सकल घरेलू उत्पादन बढ़ने का संगठित और ख़ासकर ग़ैर-संगठित क्षेत्र के मज़दूरों को ख़ास फ़ायदा नहीं हुआ और महँगाई के सामने इनके वेतन तो वहीं ठहरे हुए हैं।

पाँचवाँ, इस समय विश्व पूँजीवादी व्यवस्था के कई बड़े देश आर्थिक सुस्ती का सामना कर रहे हैं। जापान और यू.के. जैसे देश आर्थिक मंदी का सामना कर रहे हैं। इन देशों की अर्थव्यवस्था में पिछले छह महीनों के दौरान नकारात्मक विकास दर दर्ज की गई है। इसके अलावा जर्मनी, नीदरलैंड जैसी अर्थव्यवस्थाओं की रफ़्तार भी काफ़ी सुस्त पड़ गई है। ये वे देश हैं, जहाँ भारत से बड़ी स्तर पर वस्तुओं और सेवाओं का निर्यात होता है। अगर इन देशों के यही हालात बने रहे, तो भारत से निर्यात और इनसे होने वाली कमाई कम होनी तय है। 

उपरोक्त चर्चा से स्पष्ट है कि सकल घरेलू उत्पादन के आँकड़ों का एक पक्ष दिखाकर फुदक रही मोदी सरकार इसके दूसरे पहलू नहीं दिखा रही। आँकड़ों का दूसरा पहलू और अन्य आँकड़े भारत के सामने खड़ी चुनौतियों की ओर इशारा कर रहे हैं। भारत सरकार पर बढ़ता क़र्ज़ भारतीय शासकों के लिए गंभीर चिंता का विषय बना हुआ है। जिस क़र्ज़ द्वारा भारत के शासकों ने पिछले सालों में अर्थव्यवस्था को धक्का लगाया है, अब वह क़र्ज़ बड़ा बुलबुला बनता जा रहा है, जो किसी भी समय फट सकता है। और क़र्ज़ के इस विशाल बुलबुले के फटने का नतीजा भारतीय अर्थव्यवस्था को गंभीर संकट में लेकर जा सकता है। जिसका सीधा असर भारत के मेहनतकश लोगों पर सबसे पहले पड़ेगा। इस स्थिति से पैदा होने वाली बेचैनी को लुटेरे शासक अच्छी तरह समझते हैं। इसलिए लगातार एक के बाद एक जनविरोधी क़ानून पारित किए जा रहे हैं और लोगों को दबाने और सत्ता के दाँत तीखे करते जा रहे हैं। इसलिए आज आँकड़ों की सरकारी बयानबाजी से निकलकर भारतीय अर्थव्यवस्था की असली हालत समझने की ज़रूरत है और नई पैदा होने वाली चुनौतियों के मद्देनज़र कमर कसने की ज़रूरत है।

– गुरमन

मुक्ति संग्राम – अप्रैल 2024 में प्रकाशित

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